गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

नारी स्वतंत्रता के मायने-------- मिथिलेश

वर्तमान युगमें सब ओर स्वतन्त्राकी आकाक्षां जाग्रत हो गयी है । नारी ह्रदयमें भी इसका होना स्वाभावीक है । इसमे सन्देह नहीं कि स्वतन्त्रता परम धर्म है और नर तथा नारी दोनों ही स्वतन्त्र होना भी चाहिए । यह भी परम सत्य है कि दोंनो जबतक स्वतन्त्र नहीं होंगे , तबतक यथार्त प्रेम भी नहीं होगा । परन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि दोंनो की स्वतन्त्रताके क्षेत्र तथामार्ग एक हैं या दो ? सच्ची बात यह हैं की नर और नारीका शारीरिक और मानसिक संघटन नैसर्गिक दृष्टिसे कदापि एक-सा नहीं हैं । तो दोंनो की स्वतन्त्रा कें मार्ग भी निश्चय ही दो हैं। दोनों अपने-अपने क्षेत्रमें अपने मार्ग से चलकर ही स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं । यही स्वधर्म है। जब तक स्वधर्म नहीं समझा जायेगा तबतक कल्याणकी आशा नहीं है । स्त्री घर की रानी है ,साम्रागी है ,घरमें उसका एकछत्र राज्य चलता है , पर वह गर की रानी स्नेहमयी माता और आदर्श गृहिणीके ही रुप में । नारीका यह सनातन मातृत्व ही उसका स्वरुप है । वह मानवता की नित्यमाता है । भगवान राम - कृष्ण , भीष्म-युधिष्ठिर , कर्ण , अर्जु, बुद्ध, महावीर , शंकर , रामानुज , गांधी आदि जगतके सभी बड़े- पुरुषको नारीने ही ने सृजन किया और बनाया है । उसका जीवन क्षणिक वैषयिक आनन्दके लिए नहीं , वह तो जगत् को प्रतिक्षण आनन्द प्रदान करनेवाली स्नेहमयी जननी है । उसमे प्रधानता है प्राणोंकी ह्रदयकी और पुरुषमें प्रधानता है शरीर की।

इसीलिए पुरुषकी स्वतन्त्राका क्षेत्र है शरीर और नारीकी स्वतन्त्रा क्षेत्र है प्राण- ह्रदय़ ! नारी शरीरसे चाहे दुर्बल हो , परन्तु प्राणसे वह पुरुष अपेक्षा सदा ही अत्यन्त सबल है। इसीलिए पुरुष उतने त्यागकी कल्पना नहीं कर सकता , जितना त्याग नारी सहज ही कर सकती है , अर्थात पुरुष और स्त्री सभी क्षेत्रोंमें समान भावसे स्वतन्त्र नहीं है । कोई जोश में आकर चाहे यह न स्वीकार करें , परन्तु होशमें आनेपर तो यह तय ही मानना पड़ेगा कि नारी देहके क्षेत्र में कभी पूर्णतया स्वाधीन नहीं हो सकती । प्रकृति ने उसके मन , प्राण और अवयवोंकी रचना ही ऐसी की है । नारी अपने एक विशिष्ट क्षेत्र में रह कर प्रकारान्तरसे सारे जग की सेवा करती है । यदी नारी अपनी इस विशिष्टता को भूल जाये तो जगत् का विनाश जल्द ही संभव है ।
जिन पाश्चात देशोंमें नारी स्वतन्त्रा के गान गाये जा रहे है वहाँ भी स्त्रियाँ पुरुषकों भांती निर्भिक रुप से विचरण नहीं कर पाती । नारी में मातृत्व है , गर्भ धारण करना ही पड़ता है । प्रकृति नें पुरष को इस दायित्व से मुक्त रखा है । इसलिए स्वतन्त्रा स्वाधिनता सर्वत्र सुरक्षित नहीं है, नारी अपने इस दायित्व से बच नहीं सकती ,जो बचना चाहती हैं , उसमे विकृतरुपसे इसका उदय होता है । यूरोपमें नारी स्वतन्त्र है , पर वहाँ की स्त्रियाँ क्या इस दायित्व से बचती है ? क्या वासनाओं पर उनका नियत्रंण है ? वे चाहे विवाह करे या ना करे परन्तु पुरुष संसर्ग किये बिना रही नहीं सकती । इग्लैंड़ में बीस वर्षकी आयुवाली कुमारीयों में चालीस प्रतिशत विवाहके पहले ही गर्भवती पायी जाती है , क्या देश का ऐसा नैतिक पतन कहीं देखने कि मिल सकता है ?? क्या ऐसी स्वतन्त्रा भारतीय महिलायें चाहती है ?? विदेशियोंका पारिवारिक जिवन भी नष्ट होता जा रहा है ।
लोग कहते है कि वहां की महिलायें शिक्षित हुई उनका विकास हुआ है । इसमें इतना तो सत्य है कि वहाँ स्त्रियोंमें अक्षर-ज्ञानका पर्याप्त विस्तार है ,परन्तु इतने मात्र से कोई सुशिक्षित और विकसित हो जाये , ऐसा नहीं माना जा सकता ।

अस्वतन्त्रा भवेत्रान्त्ररी सलज्जा स्मितभाषिणी ।
अनालस्या सदा स्त्रिग्धा मितवाग्लोभवर्जिता ।। (उत्तराखण्ड ८-२)

"नारी को स्वच्छन्दतासे शून्य , लज्जायुक्त , मन्द मुदकानहीन वाणी बोलनेवाली , सदा प्रेम पूर्वक भाषण करने वाली और लोभसे हीन होनी चाहिए "।
वास्तव में शिक्षा वह है जो मनुष्यमें उसके स्वधर्मानुकूल कर्तव्य जाग्रत करके उसे कर्तव्यका पूरा पालन करने योग्य बना दें। प्रकृति के विरुद्ध शिक्षासे कोई लाभ नहीं हो सकता है ये भी सत्य है । इस युग में जो
शिक्षा महिलाओं को दी जा रही है क्या उनका स्वधर्मोचित विकास हुआ है ?? एक बड़ा सवाल हो सकता है ।
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्दिमवाप्रोती न सुखं न परां गतिम् ।

"जो मुनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह सुख को कभी प्राप्त नहीं कर सकता ।
"
सच पूछिये तो सैकड़ो वर्षोसे चली आ रही है यूरोपकी शिक्षाने वहाँ कितनी महान् प्रतिभाशालिनि जगत की नैसर्गिक रक्षा करने वाली महिलाओं को उतपन्न किया है ? बल्कि यह प्रत्यक्ष है कि इस शिक्षासे वहाँ नारियों में गृहणीत्व तथा मातृत्व हास हुआ है । अमेरिका में 77 प्रतिशत महिलायें घर के कामों मे असफल होती है , । 60 प्रतिशन महिलायें ज्यादा उम्र हो जाने के कारण वैवाहिक योग्यता खो देती हैं । विवाह की उम्र साधारतः 16 से 20 वर्ष की मानी जाती है , इसके बाद ज्यों-ज्यो उम्र बढ़ती जाती है त्यों-त्यों विवाह की योग्यता भी कम होती जाती है । इसी का परिणाम है कि वहाँ स्वेक्षाचार , अनाचार, व्यभिचार और अत्याचार लगातार बढ़ते जा रहे हैं । अविवाहिता माताओंकी संख्या क्रमशः बढती जा रही है । घर का सुख किसी को नहीं । बिमारी तथा बुढापे में कौन किसकी सेवा करें ? वहां की शिक्षिता स्त्रियो में लगभग 50 प्रतिशत कुमारी रहना पड़ता है । क्या यही बहुमुखी विकास है ?????

3 टिप्पणियाँ:

हरीश सिंह ने कहा…

achchhi post

saurabh dubey ने कहा…

accha likhe ho

बेनामी ने कहा…

सशक्त चिंतन..

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