जीवन का
पानी भरपूर पीया
फिर भी प्यासा रहा
कुछ कमी निरंतर
महसूस करता रहा
भौतिक सुख को
निरंतर सफलता का
पैमाना समझता रहा
खुशी का
पड़ाव मानता रहा
वो भ्रम निकला
हरी हरी दूब पर
सूर्य की तपन से
भाप बन उड़ जाती
ओस सा था
कुछ समय खुशी और
संतुष्टी का
अहसास तो देता
पर सत्य से कोसों
दूर होता
उम्र के जिस मोड़ पर
खडा हूँ
सब बेमानी लगता
अब पता चल रहा
सत्य से कितना दूर था
मन शांती चाहता
अपनों का
दिल जीतना चाहता
अपनों से दूर होकर
जीवन भी
बिना महक के फूल सा
हो जाता
जो खिलता तो है मगर
किसी को लुभाता नहीं
ऐसा जीवन किसी को
संतुष्ट नहीं रख पाता
जीवन की प्यास नहीं
बुझा पाता
समझ नहीं पाता हूँ
क्या जीवन को अधूरा
खुद को प्यासा
समझूँ ?
समझूँ ?
12-07-2011
1172-55-07-11