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शनिवार, 26 मार्च 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य--प्रथम सुमनान्जलि...वन्दना..---डा श्याम गुप्त

    प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा    
           रचयिता---डा श्याम गुप्त


भारतीय ब्लॉग लेखक मंच पर .... प्रेम महाभारत  के उपरान्त....प्रेम जैसे विशद विषय को आगे बढाते हुए व उसके विविध रंगों को विस्तार देते हुए ...आज से हम  महाकाव्य "प्रेम काव्य " को क्रमिक रूप में पोस्ट करेंगे । यह गीति विधा महाकाव्य में प्रेम के विभिन्न रूप-भावों -- व्यक्तिगत से लौकिक संसार ...अलौकिक ..दार्शनिक  जगत से होते हुए ...परमात्व-भाव एवं मोक्ष व अमृतत्व तक --का गीतिमय रूप में निरूपण  है | इसमें  विभिन्न प्रकार के शास्त्रीय छंदों, अन्य छंदों-तुकांत व अतुकांत  एवं विविधि प्रकार के गीतों का प्रयोग किया गया है |
          यह महाकाव्य, जिसकी अनुक्रमणिका को काव्य-सुमन वल्लरी का नाम दिया गया है -- वन्दना, सृष्टि, प्रेम-भाव, प्रकृति प्रेम, समष्टि प्रेम, रस श्रृंगार , वात्सल्य, सहोदर व सख्य-प्रेम, भक्ति श्रृंगार, अध्यात्म व अमृतत्व ...नामसे  एकादश सर्गों  , जिन्हें 'सुमनावालियाँ' कहा गया है , में निरूपित है |
      प्रथम सुमनांजलि -वन्दना..१० रचनायें--.   जिसमें प्रेम के सभी देवीय व वस्तु-भावों व गुणों की वन्दना की गयी  है .....आगे... .
७ - रति-अनंग वन्दना ......
जीत कर महादेव को ,जो-
 स्वयं को लय कर गया |
भस्म होकर काम, जग को-
कामना   से   भर  गया ||


हो अनंग,रस-रंग की जो-
मन  जगाये  कामना |
साथ में रति के जगत की,
बन गया रति-भावना  ||

प्रेम की हे युगल मूरत,
बार  बार   प्रणाम   है |
मिले आशिष काव्य मेरा,
प्रेम   के   ही    नाम है  || 

८-मानस वन्दना ....
प्रेम के आधार हे मन !
मन तुम्हारा करूँ वंदन |
प्रेम के आधार  हे मन !

प्रेम की आराधना के,
तुम हो साधन मेरे मन!
में तुम्हारी वन्दना  में,
कर रहा हूँ पुष्प अर्पण |

प्रेम के आधार हे मन !

जब किसी के प्रति,किसी के-
मन में आकर्षण समाये |
मन के मंदिर में कोई,
निज कल्पना का मीत पाए ||

तुम प्रथम मन-भावना के,
वहन-कर्ता, मीत उन्मन |
प्रेम के आधार हे मन !
वन्दना तेरी करूँ मन ||

प्रेम के आधार हे मन !

हो आत्मस्थ इन्द्रियों में,
ज्ञान बने सज जाते हो |
हो अन्तस्थ ह्रदय तल में,
बने स्वप्न इठलाते हो ||


विह्वल -भाव बसे उर में,
प्यार अमित बन जाते हो |
प्रेम के वाहक मेरे मन ,
प्रेम तुम हो, प्यार हो मन ||


प्रेम के आधार हे मन !
मन तुम्हारा करूँ वंदन ||   --क्रमश:  वंदना.....


बुधवार, 23 मार्च 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य--प्रथम सुमनान्जलि...वन्दना...आगे...रचयिता---डा श्याम गुप्त

    प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा    
           रचयिता---डा श्याम गुप्त


भारतीय ब्लॉग लेखक मंच पर .... प्रेम महाभारत  के उपरान्त....प्रेम जैसे विशद विषय को आगे बढाते हुए व उसके विविध रंगों को विस्तार देते हुए ...आज से हम  महाकाव्य "प्रेम काव्य " को क्रमिक रूप में पोस्ट करेंगे । यह गीति विधा महाकाव्य में प्रेम के विभिन्न रूप-भावों -- व्यक्तिगत से लौकिक संसार ...अलौकिक ..दार्शनिक  जगत से होते हुए ...परमात्व-भाव एवं मोक्ष व अमृतत्व तक --का गीतिमय रूप में निरूपण  है | इसमें  विभिन्न प्रकार के शास्त्रीय छंदों, अन्य छंदों-तुकांत व अतुकांत  एवं विविधि प्रकार के गीतों का प्रयोग किया गया है |
          यह महाकाव्य, जिसकी अनुक्रमणिका को काव्य-सुमन वल्लरी का नाम दिया गया है -- वन्दना, सृष्टि, प्रेम-भाव, प्रकृति प्रेम, समष्टि प्रेम, रस श्रृंगार , वात्सल्य, सहोदर व सख्य-प्रेम, भक्ति श्रृंगार, अध्यात्म व अमृतत्व ...नामसे  एकादश सर्गों  , जिन्हें 'सुमनावालियाँ' कहा गया है , में निरूपित है |
      प्रथम सुमनांजलि -वन्दना..१० रचनायें--.   जिसमें प्रेम के सभी देवीय व वस्तु-भावों व गुणों की वन्दना की गयी  है .....आगे... .
        ३-उमा-महेश वंदना....
काम मोह को जीत कर,किया काम को ध्वस्त |
ऐसे   औघड़,  सदाशिव,  राहें   करें   प्रशस्त ।
 राहें करें प्रशस्त ,   प्रेम की  महिमा  न्यारी,
प्रेम बसे  भगवान,  प्रेम पर सब बलिहारी ।
 श्याम जब करें पार्वती संग तान्डव शंकर ,
सृष्टि    प्रेम- लय होय, बजे डमरू प्रलयंकर ॥

तीन लोक सब दिशायें, सृष्टि सभी स्तब्ध ।
शिवशंकर के क्रोध से,हुआ काम जब ध्वस्त।
 हुआ काम जब ध्वस्त,करे रति विलाप भारी ,
पति व प्रेम के बिना,जिये कैसे प्रभु! नारी ।          
हो जग में  संचार,  प्रेम की रीति-भाव का,
विनती है,  हे नाथ!  करें उद्धार नाथ का ॥

भोले भन्डारी किया, कामदेव आश्वस्त ,
पृथ्वी  पर फ़िर प्रेम की, राहें हुईं प्रशस्त ।
राहें हुईं प्रशस्त, स्वस्ति यह बचन उचारा,
बन कर रहो अनंग,भाव-रति मन के द्वारा ।
करें ’श्याम' कर बांध, उमा-शम्भू पद वंदन,
कामदेव उर बसे, सजाये प्रेमिल बंधन ॥

        ४- राधा-कृष्ण वन्दना 
राधे श्री,   मन में बसें , राधा मन घनश्याम |
राधा-श्याम जो मन बसें,हर्षित मन हों श्याम ||

लीला राधा-श्याम की, श्याम' सके क्या जान |
जो लीला को जान ले, श्याम रहे ना श्याम ||

राधा कृष्ण सुप्रेम ही, जग की है पहचान 
कौन भला समझे करे, एसा प्रेम महान ||

मेरे उर में बस  रहो, राधा संग घनश्याम |
प्रेम बांसुरी उर बजे,धन्य धन्य  हों श्याम ||

राधा सखियाँ संग हैं, और सखा संग श्याम |
भक्ति रास लीला रचें, रीति चले अविराम ||

राधाजी का रंग  जो,  पड़े श्याम के  रंग  |
हर्षित अँखियाँ होरहीं, देख हरित दुति अंग ||

ललित त्रिभंगी रूप में, राधा संग गोपाल |
निरखि-निरखि सो भव्यता, होते श्याम निहाल ||

अमर -प्रेम के  रंग का, पाना चाहें  ज्ञान |
राधा-नागरि का करें, नित प्रति उर में ध्यान |

'श्याम, खडा करबद्ध जो, राधाजी के द्वार |
श्याम-कृपा तो मिले ही, राधा कृपा अपार ||

हे राधे !  हे राधिके !, आराधिका ललाम |
श्याम करें आराधना, होय राधिका नाम ||

रस स्वरुप घनश्याम हैं , राधा भाव-विभाव |
श्याम भजे रस संचरण, पायं सकल अनुभाव ||  
                                          ----क्रमश : सुमनांजलि प्रथम...वन्दना ...

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