दिल की दिल को सुनाने के वास्ते
आया है माशूक़ मनाने के वास्ते
ख़ामोशी तबस्सुम कलाम और नख़रे
बहुत हैं दिल लुभाने के रास्ते
शबे आख़िर में चाँद अपना जगाइये
आसमाँ पे दिल के चढ़ाने के वास्ते
अश्क न बहा तू फ़रियाद न कर
इंतज़ार कैसा किसी बेवफ़ा के वास्ते
हमदर्द भी मिलेंगे हर मोड़ पर
हौसला चाहिए हाथ बढ़ाने के वास्ते
शबो रोज़ यूँ गुज़ारता है 'अनवर'
लिखता है कलिमा पढ़ाने के वास्ते
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क्यों जी , यह कैसी लगी ?
13 टिप्पणियाँ:
bhut hi acchi gazal hai...
बकवास !!
लिखना ना आये तो हर जगह अपनी टांग न घुसेड़ा करो !
बकवास !!
लिखना ना आये तो हर जगह अपनी टांग न घुसेड़ा करो !
बहुत हैं दिल लुभाने के रास्ते...
= राहें हैं दिल लुभाने के वास्ते...हो तो सही हो जायगा...
--शब्द-- कोमल कान्त पदावली व लालित्यपूर्ण काव्य-भाषा में न होने की वज़ह से अनाम जी ने यह कहा होगा..
--वैसे गज़ल अच्छी है...
डा गुप्ता जी आपने सही रेखांकित किया है !!
किन्तु गजल ख़ाक अच्छी है !!
इस गजल में भी इन्होने कलिमा पढ़ाने के वास्ते जबरदस्ती घुसेड दिया
ये बन्दा अपनी आदत से बाज नहीं आयेगा .
jhooth kahen ya sach aap hi batayen vaise sach aapse suna n jayega aur jhooth hamse bola n jayega.
बेमतलब किसी की बुराई करना अच्छी बात नहीं. अनवर भाई ने शब्दों के माध्यम से अपने भाव यदि रखे है तो बुरा क्या है. बेनामी जी निश्चित रूप से आप अनवर भाई से निजी खुन्नस निकाल रहे है यह अच्छी बात नहीं. आप को अच्छा नहीं लगा तो और भी लेख है उनपर कमेन्ट क्यों नहीं किये. वेवजह वाद-विवाद उचित नहीं.
अनवर भाई..
में भी एक गजल लिखने का प्रयास करता हूँ..
@बेनामी: अगर कोई प्रयास करे तो कृपया उसकी सहायता करें..धीरे धीरे इन्सान में सुधर आ ही जाता है..
bahut khoob gazal .
ठीक है आशुतोष भाईजान आपकी बात मान के इन्हें सुधरने का मौक़ा दे देता हूँ बाकी अल्लाह मालिक है लेकिन कुत्ते की दुम सदा टेढ़ी ही रहती है चाहे लाख उसे मोटे लोहे की पाइप में ही क्यों न फिट कर दिया जाय
यह गज़ल मैं टिप्पणी के रूप में पढ़ चुकी हूँ ... अच्छी गज़ल ..
खुन्नस कौन निकाल रहा है ? आप या ... ??? खैर मुझे क्या
सही कहा बेनामी जी... आशिक-माशूक- वेवफ़ा की बातों में कलिमा कहां से आगया...माशूक को/द्वारा मनते- मनाते रोज़ रात गुजारी और लिखते रहे कलिमा पढाने को...वाह ! क्या बात है...क्या कलिमा है..अर्ज है--
"-रात को पी और दिन में तौबा करली,
ज़ींस्त के ज़ींस्त रहे हाथ से ज़न्नत न गयी ॥"
1. सुमन जी ! आपका मन ‘सु-मन‘ है, इसीलिए आपको यह रचना अच्छी लगी।
मैं आपका शुक्रगुज़ार हूं।
2. डा. श्याम गुप्ता जी आपका भी आभार । आपके दम से ही तो रौनक़ है हमारी मजलिसों में।
3. शालिनी जी ! हमारे खि़लाफ़ शायद आप से भी कहा न जाएगा।
आपका शुक्रिया !
4. आशुतोष जी ! आप बेशक प्रयास करें, उसे सराहने के लिए हम ज़रूर आएंगे।
सकारात्मक करने का प्रयास हमेशा सराहनीय होता है।
5. संगीता जी ! आपने सही कहा। दरअस्ल मैंने साधना वैद की ग़ज़ल पढ़ी तो वहीं यह ग़ज़ल प्रकट हो गई थी। उन्हीं की ग़ज़ल के रदीफ़ क़ाफ़िये में है यह ग़ज़ल।
शुक्रिया !
6. बेनामी भाई ! कलिमे में एक मालिक का नाम है और उसी का नाम हमारे दिलों में रम जाए और हम पूर्ण रूप से उसके आज्ञाकारी बन जाएं, इसी के लिए मैं लिखता हूं। अगर आप इसे ग़लत समझते हैं तो मैं भला इसमें क्या कर सकता हूं ?
अपनी सोच और अपने तिरस्कारपूर्ण व्यंग्य के लिए एक दिन आपको अपने मालिक को हिसाब देना होगा। यह सच है। कर्मों का फल इंसान को ख़ुद ही भोगना पड़ता है।
आपका भी शुक्रिया !
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/06/baba-ramdev-ji.html
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