‘‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिये, देश क्या आज़ाद है।
कोठियों से मुल्क की ऊंचाइयां मत आंकिये, असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।।’’
देश की तथाकथित आज़ादी की इस 65वीं वर्षगाँठ के मौके पर अदम गोंडवी की ये पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर कर रही हैं।
मैं फुटपाथ पर आबाद हिंदुस्तान हूँ। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरी आवाज सुनो, लेकिन नक्कारखाने में तूती की तरह ही सही मैं बोलना चाहता हूँ। बचपन से किस्से कहानियों में सुनता आ रहा हूँ कि किले में राजा-महाराजा सब रहा करते थे। धरती पर आने में थोड़ी देर कर दी इसलिए राजा-रानी के दर्शन नहीं कर पाया कभी। मेरे आने से पहले ही देश में लोकतंत्र (?) आ गया। लेकिन फिर भी टिकट कटाकर लालकिले जरूर गया हूँ। राजा-रानी तो नहीं लेकिन उनके कमरे, बाथरूम, बगीचे जरूर देखने को मिले। राजा के सैनिक तो नहीं लेकिन स्वतंत्रता की रक्षा में लगे सैनिक जरूर दिखाई दिए।
आज़ादी की सालगिरह के दिन स्वतंत्रता की देवी के दर्शन के लिए भी अजब मारामारी रहती है।
वैसे भी जहाँ रानी मुखर्जी को देखने के लिए होड़ लग जाती हो वहां स्वतंत्रता की इस रानी को देखने की इच्छा होना तो स्वाभाविक ही है।
स्वतंत्रता भी एक रानी है, देवी है, बला की खूबसूरत रानी। जहाँ खूबसूरती है वहां बला है, बलवा है, झगड़ा है, फसाद है। इस रानी की सुरक्षा बहुत जरूरी है।
और जो हालात दिख रहे हैं, उनमें ये स्पष्ट है कि इस लोकतंत्र (?) में ये स्वतंत्रता आम आदमी की पहुँच से जितनी दूर रहेगी, उतनी ही सुरक्षित रहेगी।
मुझ जैसे बहुत से लोग सालों से कोशिश में हैं कि स्वतंत्रता के दर्शन हो जाएँ, लेकिन वहां पुलिस के डंडों के आलावा कुछ नहीं मिल पाता है।
मैं सोच रहा हूँ कि आखिर स्वतंत्रता इस किले से कब मुक्त होगी? खेत-खलिहान, गाँव, कसबे में कब पहुंचेगी ये स्वतंत्रता? भारत के नागरिकों को मिली हुई इतनी महँगी और कीमती स्वतंत्रता मुझ जैसे गंवार को कब मुहाल होगी?
अन्ना की टीम एक और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही है, लेकिन पता नहीं वो भी इस किले में कैद स्वतंत्रता को स्वतंत्र कर पायेंगे या नहीं।
डर लग रहा है कि कहीं स्वतंत्रता की तीनरंगिया चुनरी की चमक फीकी तो नहीं पड़ गयी है। इसके केसरिया रंग में कैशोर्य बचा है या गायब हो गया?
सफेद रंग बदरंग तो नहीं हो गया है ना?
इसके हरे रंग की हरीतिमा शेष है या कहीं खो गयी है?
मुझे स्वतंत्रता से बहुत प्यार है, बेशक वह मुझे मिले या न मिले। वैसे भी इस किले के बाहर जो कुछ भी देखने को मिल रहा है, वह कुछ अच्छा संकेत नहीं कर रहा है। जिस तरह से लोकतंत्र (?) के नाम पर अभिव्यक्ति का गला घोंटने का प्रयास हो रहा है। जिस तरह से आम जन से इस स्वतंत्रता को दूर रखा गया है। जिस तरह से कुछ लोग पूरी स्वतंत्रता से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। जिस तरह से सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाज को कुचलने का हर रोज प्रयास हो रहा है, उसे देखकर लगता है कि किले के भीतर की स्वतंत्रता भी सुरक्षित नहीं होगी। वो भी सिसक रही होगी। नासूर बनते भ्रष्टाचार और अत्याचारों से आहत हो रही होगी। आखिर प्राण तो इसका भी इस जन-गण के मन में बसता है ना। अफसोस तो इस आज़ादी को भी होगा ही खुद पर कि यह उसकी नहीं हो पायी जो इसके लिए जीता-मरता रहा है।
ऐसा कहना तो गलत होगा कि यह जीवन उस गुलामी के दौर के जीवन से बदतर है, लेकिन दिल ये भी नहीं मानता कि हालात बहुत ज्यादा बदल गए हैं। फुटपाथ पर बसे हुए जिस हिंदुस्तान की बात मैं कहना चाहता हूँ, उसके लिए तो तस्वीर अभी भी लगभग वैसी ही है। उसके लिए परेशानियों की सिर्फ शक्ल बदली है, परेशानियाँ वही हैं। उसके लिए सिर्फ शासक के रूप रंग में परिवर्तन हुआ है, लेकिन उसके शोषण का हाल आज भी वैसा ही है।
इस सत्तर फीसदी हिन्दुस्तान की ओर से मैं यही कहा चाहूंगा कि हे स्वतंत्रता! तुम बिलकुल परेशान मत होना, जल्द ही तुम्हें इस किले की कैद से मुक्त करने के लिए एक मुकम्मल लड़ाई होने वाली है। -0-
-अमित तिवारी
समाचार संपादक
अचीवर्स एक्सप्रेस
(हिंदी साप्ताहिक)
4 टिप्पणियाँ:
VERY NICE POST
Bahut Badhiya lekh..AAbhar..
mere bhi blog me aayen.
मेरी कविता
@Pradeep ji dhanywaad..
@ Virendra ji bahut bahut aabhar...
क्रान्तिकारी पोस्ट. बधाई.
एक टिप्पणी भेजें