प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा
रचयिता---डा श्याम गुप्त
भारतीय ब्लॉग लेखक मंच पर .... प्रेम महाभारत के उपरान्त....प्रेम जैसे विशद विषय को आगे बढाते हुए व उसके विविध रंगों को विस्तार देते हुए ...आज से हम महाकाव्य "प्रेम काव्य " को क्रमिक रूप में पोस्ट करेंगे । यह गीति विधा महाकाव्य में प्रेम के विभिन्न रूप-भावों -- व्यक्तिगत से लौकिक संसार ...अलौकिक ..दार्शनिक जगत से होते हुए ...परमात्व-भाव एवं मोक्ष व अमृतत्व तक --का गीतिमय रूप में निरूपण है | इसमें विभिन्न प्रकार के शास्त्रीय छंदों, अन्य छंदों-तुकांत व अतुकांत एवं विविधि प्रकार के गीतों का प्रयोग किया गया है |
रचयिता---डा श्याम गुप्त
भारतीय ब्लॉग लेखक मंच पर .... प्रेम महाभारत के उपरान्त....प्रेम जैसे विशद विषय को आगे बढाते हुए व उसके विविध रंगों को विस्तार देते हुए ...आज से हम महाकाव्य "प्रेम काव्य " को क्रमिक रूप में पोस्ट करेंगे । यह गीति विधा महाकाव्य में प्रेम के विभिन्न रूप-भावों -- व्यक्तिगत से लौकिक संसार ...अलौकिक ..दार्शनिक जगत से होते हुए ...परमात्व-भाव एवं मोक्ष व अमृतत्व तक --का गीतिमय रूप में निरूपण है | इसमें विभिन्न प्रकार के शास्त्रीय छंदों, अन्य छंदों-तुकांत व अतुकांत एवं विविधि प्रकार के गीतों का प्रयोग किया गया है |
यह महाकाव्य, जिसकी अनुक्रमणिका को काव्य-सुमन वल्लरी का नाम दिया गया है -- वन्दना, सृष्टि, प्रेम-भाव, प्रकृति प्रेम, समष्टि प्रेम, रस श्रृंगार , वात्सल्य, सहोदर व सख्य-प्रेम, भक्ति श्रृंगार, अध्यात्म व अमृतत्व ...नामसे एकादश सर्गों , जिन्हें 'सुमनावालियाँ' कहा गया है , में निरूपित है |
प्रथम सुमनांजलि -वन्दना..१० रचनायें--. जिसमें प्रेम के सभी देवीय व वस्तु-भावों व गुणों की वन्दना की गयी है .....आगे... .
५-माँ भारती वन्दना ...
आर्यमाता, भूमि देवी ,शस्यश्यामल धाम है |
फुल्ल कुसुमित भारती माँ , बार बार प्रणाम है ||
धर्म तुम हो, मर्म तुम हो,आयु यश बल दायिनी |
मन सुमन स्वीकार लो माँ, भारती हे मानिनी !
जो अलंकृत रह चुकी है, विश्व-गुरु सम्मान से |
चलपड़ी उन्नत-शिखर को, आज फिर नव मान से ||
मोह निद्रा त्याग, पुष्पित, नव सृजन की हो कली |
निज शक्ति बैभव ज्ञान को,फिर प्रकट करने चली ||
कर्म के हर क्षेत्र में ही, नित करे नव सर्जना |
प्रेम के बंधुत्व पथ पर,फिर करे नव गर्जना ||
फिर, विश्व गुरु भारत बने, हो प्रेम की स्थापना |
चाहता है यही आशीष, 'श्याम कर, पद वन्दना ||
६-ईषत-अहं-वन्दना .....
प्रेम के ईषत-अहं१ रूप में,
जग कारक सत्ता मुस्काई |
एक से बनूँ अनंत, असीम में,
जब ईषत-इच्छा२ लहराई ||
यह इच्छा बन आदि-प्रेम,जब-
सृष्टि के कण कण में छाया|
जड़ जंगम गति जीव जगत के ,
अंतस में बन प्रेम समाया ||
उसी परम ईषत-इच्छा को -
कर नमन, 'प्रेम' आरम्भ करूँ |
प्रेम-कुसुम वल्लरी फले मन,
श्री चरणों में नित शीश धरूँ ||
[कुंजिका - १= मूल अहं--जिससे समस्त सांसारिक चक्र व मायाजाल की अभिव्यक्ति होती है...वह ब्रह्म का सृष्टि -जगत के प्रति प्रेम ही है जिससे वह स्वयं को व्यक्त करके माया बंधन में बंधता है....२= मूल अहम् के जाग्रत होने पर 'एकोहं बहुस्याम ' एक से अधिक होने की मूल ब्रह्म इच्छा जिससे समस्त सृष्टि हुई...}
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें