आज फिर से
एक बार......
है वही मंजर
मद्धम मद्धम
टूटती सांसों
में आस है
जीने की कहीं ......
मरू में नीर बिंदु सी ....
पत्थर में ईश सी .....
हर आती और जाती
निशा के संग
स्पर्श करना
इस अहसास से
उस कोमल गात को
क्या जीवन बाकी है .........
है कितना दुष्कर
हर बार एक म्रत्यु
छुअन से पूर्व
फिर भी
स्पर्श करना है
जीना है ...
और बस
जीते जाना है .....
इस उम्मीद में
आज फिर
बच गया जीवन ....
कल का क्या ?
अनिश्चितता से भी परे......
एक इंतजार
दीप की लौ से
डबडबाते जीवन का
या फिर
कालचक्र का ......
अर्थहीन सा यक्ष प्रश्न .....
जिज्ञासा है
पर जान कर भी
अनजान बनने का ढोंग ....
फिर भी –
हर बार --------
वही मंजर
टूटती , मद्धम
सांसों में
आस है जीने की
पत्थर में ईश सी ......
मरू में नीर बिंदु सी .........
3 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
वो कभी-कभी आते है.
फिर जाने कहा गुम हो जाते है.
पर जब भी आते हैं,
कुछ अच्छा सुना जाते है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
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