रविवार, 12 जून 2011

दिन ढलते- ढलते

शान्त सूनसान माहौल

विटप विकल असहाय

मुरझाया कोमल पत्ता

देख रहा रबि के पथ को

टेड़ी पत्ती झुलस गयी थी

पुकार करती कृपा की

आग उगलता सूरज

तीसरा पहर बीत रहा है

देख सूरज की लालिमा

जीवन मिला पत्तों को

हटने लगा कहर धूप का

आगमन अब शाम का

सुखी तरु कहने लगा

मुझ सा खड़ा देख दुर्दिन

सुख की आशा में

लड़ता चल

बिना लड़े दुख नही कटेगा

इन्तजार कर हँसते- हँसते

सुख आयेगा , दुख जायेगा

सूरज ढलते- ढलते ।।
- मंगल यादव

3 टिप्पणियाँ:

shyam gupta ने कहा…

सही ..अच्छी कविता....आशा का दामन नहीं छोडना चाहए...

विभूति" ने कहा…

sakratmak soch ko prerit karti rachna...

गंगाधर ने कहा…

sakratmak soch ko prerit karti rachna...

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