शान्त सूनसान माहौल
विटप विकल असहाय
मुरझाया कोमल पत्ता
देख रहा रबि के पथ को
टेड़ी पत्ती झुलस गयी थी
पुकार करती कृपा की
आग उगलता सूरज
तीसरा पहर बीत रहा है
देख सूरज की लालिमा
जीवन मिला पत्तों को
हटने लगा कहर धूप का
आगमन अब शाम का
सुखी तरु कहने लगा
मुझ सा खड़ा देख दुर्दिन
सुख की आशा में
लड़ता चल
बिना लड़े दुख नही कटेगा
इन्तजार कर हँसते- हँसते
सुख आयेगा , दुख जायेगा
सूरज ढलते- ढलते ।।
- मंगल यादव
रविवार, 12 जून 2011
दिन ढलते- ढलते
6/12/2011 02:56:00 am
mangal yadav
3 comments
3 टिप्पणियाँ:
सही ..अच्छी कविता....आशा का दामन नहीं छोडना चाहए...
sakratmak soch ko prerit karti rachna...
sakratmak soch ko prerit karti rachna...
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