वह शपथ साथी! मुझे रोने नहीं देती।
सुसंचित जलराशि को खुद में समेटे,
सिंधु ने कब किसी सरिता को पुकारा ?
कामना ले बूँद की वह रो रहा हो,
दृश्य ऐसा फिर मिले शायद दुबारा।
बूँद तो है बूँद उसका प्रस्फुटन क्या,
और साथी! शमन भी क्या!
सिंधु को ही शुष्क कर दो,
विशदता उसकी उसे खोने नहीं देती।
अनगिनत दैदीप्य तारक और विधु भी
अंक में जिसके बनाए हों बसेरा।
वही नभ जब दीपिका से ज्योति माँगे,
कहे-‘यह होगा बड़ा उपकार तेरा।’
सराहें उस दीपिका का भाग्य, या फिर
भाव नभ का पूज्य मानें ?
इन्हें अब संयुक्त कर दो,
क्यों नियति इनका मिलन होने नहीं देती ?
प्राप्य को खोकर कहो किसके लिए अब
वरूँ मैं अमरत्व, जीवन को सवारूँ ?
हँसूं तो कैसे हँसूं मैं बिन तुम्हारे,
नहीं वश अपना अकेले जग निहारूँ ।
प्राण का संबंध तो अभिशाप बनकर
छल रहा है, इसलिए अब
शयन से नाता अमर दो,
जिंदगी तो अब मुझे सोने नहीं देती।
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