शुक्रवार, 27 मई 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य-- अष्ठम गीत--वीणा-सारंग--.(-सुमनान्जलि-४.).-- डा श्याम गुप्त



  ------ प्रेम के विभिन्न  भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत  चतुर्थ -सुमनांजलि- प्रकृति - में प्रकृति में उपस्थित प्रेम के विविध उपादानों के बारे में,  नौ विभिन्न अतुकान्त गीतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो हैं--भ्रमर गीत, दीपक-राग, चन्दा-चकोर, मयूर-नृत्य , कुमुदिनी, सरिता-संगीत, चातक-विरहा, वीणा-सारंग व शुक-सारिका... । प्रस्तुत है अष्टम  गीत----वीणा-सारंग .....

सारंग !
तुम संगीत में आत्म लय हो जाते हो  ।
वीणा-नाद के स्वर रूपी-
मोह जाल में बंधकर 
जान से जाते हो  ।
क्यों ?
जाल में फंसा घायल मृग  ,
तड़फड़ाया  ;
टूटती हुई साँसों से,
यही कह पाया  ।
 
श्रीमान !
यह तो है प्रेम की ही माया ,
नाद प्रेम तो है जन जन में समाया  ।
नाद जीवन है, नाद जगत है ,
नाद है प्रभु की छाया  ।
जो आनंद नाद जी लेता है,
नाद रूपी प्रेम रस पी लेता है ,
वह तो एक क्षण में ही -
सारा जीवन जी लेता है  ||

नाद आनंद है,
प्रेमानंद है, परमानंद है,
ब्रह्मानंद है  |
कल कल निनाद है,
अंतर्नाद है  |
सारा जगत ही जीवन का नाद  है ;
नाद ब्रह्म का संवाद  है  |
फिर क्या जीना ,
क्या मरना ;
व्यर्थ का विवाद है ||
 
 



3 टिप्पणियाँ:

Shalini kaushik ने कहा…

sundar bhavpoorn prastuti.aabhar.

rubi sinha ने कहा…

sundar bhavpoorn prastuti.aabhar.

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद , रूबी जी, निर्मल आनंद...
धन्यवाद...गन्गाधर व शालिनी जी....

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