बुधवार, 20 अप्रैल 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य--तृतीय सुमनान्जलि-- अन्तिम रचना ’प्रेम गली’ ---डा श्याम गुप्त



  प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा  --     रचयिता---डा श्याम गुप्त  

  -- प्रेम के विभिन्न  भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत  सुमनांजलि- प्रेम भाव को ९ रचनाओं द्वारा वर्णित किया गया है जो-प्यार, मैं शाश्वत हूँ, प्रेम समर्पण, चुपके चुपके आये, मधुमास रहे, चंचल मन, मैं पंछी आजाद गगन का, प्रेम-अगीत व प्रेम-गली शीर्षक से  हैं |---प्रस्तुत है  प्रेम का एक और भाव - नवम  व इस सर्ग की अन्तिम रचना... प्रेम गली ....
प्रश्न यह मन में था,कौन है प्रभु कहाँ ?
मैं लगा खोजने खोजा सारा जहां ||
ज्ञान के तर्क के, भाव के कर्म के ,
मार्ग खोजे सभी,स्वर्ग और नर्क के |
मंदिर-मस्जिद में ढूंढा मैंने उसे ,
पूजा -अर्चन में खोजा मैंने उसे |
मैंने खोजा उसे तंत्र में मन्त्र में,
बीजकों के कठिन ज्यामितीय यंत्र में |
गलियों-राहों में मैंने ढूंढा उसे,
चाह में नित नए सुख की ढूंढा उसे |
ढूंढा नव ज्ञान में, मान -अभिमान में,
सागर-आकाश में, सिद्धि-सम्मान में |
हर जगह उसको ढूंढा यहाँ से वहां ,
उसको  पाया नहीं , ढूंढा सारा जहां ||
काबा-काशी गए और सिज़दे किये,
वेद की उन ऋचाओं में ढूंढा किये |
शास्त्र गीता पुराणों में खोजा किये,
गीत संगीत छंदों में झूमा किये 
ढूंढा हमने उसे फूल में शूल में,
पात्र-गुल्मों में और बृक्ष के मूल में | 
खोजते हम रहे माया संसार में,
मन मुकुर और मानव के व्यवहार में |
ढूंढा हमने उसे योग में भोग में ,
ब्रह्म में, मोक्ष और हर खुशी-शोक में |
उसको  पाया नहीं, ढूंढा सारा जहां ,
प्रश्न यह मन में था कौन है प्रभु कहाँ ||

प्रेम की जब गली हम जाने लगे,
प्रीति के स्वर जब मन में समाने लगे |
हमको एसा लगा पास में ही कहीं ,
ईश-वीणा के स्वर गुनगुनाने लगे |
प्रेम सुरसरि की रसधार में हो मगन,
उन शीतल सी लहरों में हम बह गए |
प्रभु के बन्दों की पूजा हम करने लगे,
उसकी हर सृष्टि से प्रेम करने लगे |
सारे संसार में,   प्रेम -सरिता बही,
कण कण से प्रेम के पुष्प झरने लगे |

प्रश्न सारे ही मन  के सरल होगये ,
प्रेम के उन क्षणों में ही प्रभु मिल गए ||

प्रेम  ही   ईश  है,   प्रेम  संसार  है,
वह जीवन है, जीवन की रसधार है |
प्रभु बसे प्रेम में, प्रीति और प्यार में ,
प्रेम के रूप में मुझको प्रभु मिल गए ||

प्रश्न यह मन में था,कौन है प्रभु कहाँ ?
मैं लगा खोजने खोजा सारा जहां |
प्रेम के भाव में मुझको प्रभु मिल गए ,
प्रश्न मन के सभी ही, यूं हल होगये ||   --  क्रमश: चतुर्थ सुमनांजलि 'प्रकृति '.....

 

7 टिप्पणियाँ:

केवल राम ने कहा…

ब्रह्म में, मोक्ष और हर खुशी-शोक में |
उसको पाया नहीं, ढूंढा सारा जहां ,
प्रश्न यह मन में था कौन है प्रभु कहाँ ||

यह प्रश्न हर किसी के मन में होता है लेकिन और वही इसका हल पाता है जो इस प्रभु को खुद के करीब समझता है ...बहुत सुंदर रचना

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

माननीय हरीश सिंह जी, क्या आपने नियम बदल दिया है. आज कुल पांच पोस्ट प्रकाशित हो चुकी है.

Shalini kaushik ने कहा…

bahut sundar bhavabhivyakti.

Anita ने कहा…

प्रेम ही ईश्वर है, प्रेम से ही उसे महसूस किया जा सकता है, सुंदर कविता !

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद ..अनिता जी,शालिनी,व केवल राम जी...

हरीश सिंह ने कहा…

bahut sundar bhavabhivyakti.
जी नहीं रमेश जी नियम नहीं बदले है, पर मैं हिटलरशाही नहीं करना चाहता. मै पहले ही कह चुका हूँ की सभी की बराबर जिम्मेदारी है. पर कुछ लोग नियमो की अनदेखी कर रहे है. उन्हें मैं चेतावनी भी दिया हूँ. मैं तीन मौके सभी को दूंगा. फिर भी जो नहीं मानेगा उसे हम हाथ जोड़कर प्रणाम कर लेंगे,

हरीश सिंह ने कहा…

khushi huyi ki aap jagrit hai.

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