गुरुवार, 17 मार्च 2011

खुद से ही लड़ते हुए समाज के लोग---(कुमारेन्द्र)

आजकल तो अब अपने से ही लड़ते रहते हैं, ये किसी भी शायराना अंदाज में कही हुई पंक्तियां मालूम हो सकती हैं पर ऐसा आजकल लगभग उन सभी के साथ हो रहा है जो दिल से देशहित में विचार करते रहते हैं। ऐसा भी नहीं है कि देशहित में विचार करने वालों की संख्या में कमी आ गई है अथवा लोगों ने इस ओर विचार करना बन्द कर दिया है। दरअसल हुआ यह है कि देशहित से मुख्य आजकल स्वार्थ हो गया है। इस स्वार्थ के कारण लोगों ने देशहित के स्थान पर स्वहित को तवज्जो देना शुरू कर दिया है।


अपने आपसे लड़ने की बात अनायास नहीं उभरी, समाज में चल रही विचित्र-विचित्र स्थितियों के बाद लगा कि व्यक्ति स्वयं से ही लड़ने में लगा हुआ है। इस तरह के हालात सरकारों के द्वारा पैदा किये गये हैं और इन हालातों का शिकार समाज का व्यक्ति ही हो रहा है। देश के विकास की बात करता है वह आदमी जो सारा दिन अपने कार्यालय में खटने के बाद शाम को घर के सदस्यों के खाने-पीने की व्यवस्था करता है। मंहगाई की मार, सामानों की अनुपलब्धता, हर एक कदम के साथ रिश्वतखोरी जैसे हालात उसे अपने से ही लड़ने को मजबूर करते हैं।

हो सकता है कि बहुत से लोगों को इसमें शायराना अंदाज के साथ एक प्रकार की फिलोसॉफी दिखाई पड़े पर यह किसी प्रकार का दर्शन नहीं वरन् आज की कटु सत्यता है। आदमी हर कदम पर प्रताड़ित हो रहा है और मुंह ताकने का काम करता है सरकार की ओर, सरकार के नुमाइंदों की ओर। इसके बाद उसे पता चलता है कि सरकार और उसके तमाम सारे अवयव सिर्फ और सिर्फ स्वहित में लगे हैं तो एक अम आदमी के पास हताशा और निराशा के अलावा कुछ बचता नहीं है। ऐसी हताशा और निराशा यदि नक्सलवाद को पैदा करता है तो व्यक्ति को व्यक्ति से लड़ाती है।

व्यक्ति का व्यक्ति से लड़ने का यही रूप जब सामने नहीं आता है तो आदमी अपने से ही लड़ने लग जाता है। उसकी यह लड़ाई उस हताशा का ही परिणाम होती है जो उसे किसी न किसी रूप में आये दिन परेशान करती है। घर के अन्दर रोजमर्रा की वस्तुओं से लेकर भौतिकतावादी सामानों में गिने जाने वाली वस्तुओं को देखें तो लगता है कि ये सब अब उनके लिए ही हैं जिनके पास सत्ता है अथवा उनके लिए जो किसी न किसी रूप में सत्ता के आसपास मंडरा रहे हैं।

हमारे तमाम सारे समाजशास्त्री, राजनीतिक विश्लेषक, विदेशनीति के जानकार किसी भी घटना के लिए एशियाई देशों के हालातों की व्याख्या कर उसका भारतीय संदर्भों में विश्लेषण करने लगते हैं पर अभी हाल में विश्व स्तर पर घटित हुईं सत्ता परिवर्तन की स्थितियों का भारतीय संदर्भ में किसी ने अध्ययन करने की आवश्यता महसूस नहीं की। इसका कारण क्या समझा जाये, या तो भारतीय इस प्रकार के परिवर्तन को लाने की क्षमता नहीं रखते हैं अथवा हमारे तमाम विश्लेषक विश्व स्तर की इन घटनाओं को पढ़ने और समझने में नाकाम रहे हैं।

याद रखना होगा कि देश जिस प्रकार से नक्सलवाद के हालातों से जूझ रहा है; आये दिन आरक्षण के नाम पर जाटों के हिंसात्मक प्रदर्शन से, विध्वंसात्मक प्रदर्शन से दो-चार होता है; वर्ग-संघर्ष के नाम पर आये दिन हत्याओं को होते देखा जा रहा है; इज्जत के नाम पर महिलाओं की इज्जत से खेलकर उन्हें मौत की नींद सुला दिया जाता हो; जनता के धन को मूर्तियों, पार्कों में खपा दिया जाता हो; ईमानदारी और मासूमियत के नाम पर करोड़ों के घोटालों का पता प्रधानमंत्री को रहता हो; बड़े से बड़ा भ्रष्टाचारी सिर्फ इस कारण से छूट जाता है कि उसके विरुद्ध पाये गये सबूत इंटरनेट पर भी उपलब्ध हैं; गरीबों से भरे इस देश मे अब घोटालों की भरमार करोड़ों के मूल्य में पहुंच गई हो; जहां दाल, चावल, रोटी, सब्जी मंहगी और सिम, कम्प्यूटर, मोबाइल सस्ते हों वहां के हालातों के विस्फोटक होने को कौन टाल सकता है? यह और बात है कि संतोषम् परम् सुखम् की जो घुट्टी हम भारतीयों को बचपन से ही पिलाई जाती रही है, उसके असर को कम होने में अभी भी सालों लगेंगे। इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना होगा कि जैसे ही इस घुट्टी ने असर दिखाना कम अथवा बन्द किया उस दिन............!!!!

शेष अभी बहुत कुछ समय के गर्भ में है, अब तो अपने से लड़ते हुए मन करता है कि छोड़ कर इस तरह की शब्दों की कारीगरी कुछ दूसरी तरह की कारीगरी शुरू कर दी जाये। शायद उसी से कुछ परिणाम निकलना शुरू हो क्योंकि समाज के दुश्मन अब शब्दों की तलवार से भयभीत नहीं होते और मरते भी नहीं; आखिर उनकी शर्म-लिहाज जो मर चुकी है।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

4 टिप्पणियाँ:

तरुण भारतीय ने कहा…

बहुत ही सही और सार्थक , सटीक पोस्ट लिखी है आपने | वर्तमान हालातो को लेकर ...............

सुज्ञ ने कहा…

देश के हालातों को सटीक इंगित करती पोस्ट

गम्भीर सोच!! शुभकामनाएं!!


निरामिष: शाकाहार : दयालु मानसिकता प्रेरक

हरीश सिंह ने कहा…

यथार्थ को बयान करती सटीक पोस्ट

Devi Nangrani ने कहा…

Aaj ki disha aur ddasha darshata yeh aalekh samaj ke saamne aaina hai. Bahut sarthak soch se buna hua .

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