415—85-03-11
इतने भी
क्या रूठे सनम तुम
हमसे
मिलना तो दूर
अब नाम भी नहीं लेते
हर जगह
बदनाम हमें करते
कोई भूले से
ज़िक्र हमारा कर दे
नफरत से उसे देखते
गुनाह
हमारे ऐसे तो ना थे
फिर क्यूं खार इतना खाते
निरंतर मुस्कराने वाले
क्यों परेशाँ इतना होते
पता है हमें दिल तुम्हारा
अब भी हमें चाहता
कैसे कहो जुबां से
मुंह इस लिए
तमतमाता
12—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
2 टिप्पणियाँ:
वाह राजेन्द्र जी। बहुत खूब। आभार।
Visit my blog: http://shabdshringaar.blogspot.com
आभार।
एक टिप्पणी भेजें