तथाकथित प्रेम दिवस , वेलेन्टाइन डे, पर विभिन्न विचार, आलेख , समाधान सामने आरहे हैं , प्रायः पाश्चात्य शिक्षा में रंगे व उन्ही विचारों से ओत प्रोत व समर्थक कहते पाए जाते हैं कि --खजुराहो , सूर्य मंदिर , कोणार्क आदि आदि हिन्दू सभ्यता के ही हैं तो क्यों धर्म के पुजारी , हिन्दू वादी , संसकृति के ठेकेदार यह सब आलोचना करते हैं |
हाँ , काम शास्त्र , कोकशास्त्र, खजुराहो, आदि भारतीय व्यवस्थाएं हैं । प्रेम के ऊपर तो उंगली उठाई ही नहीं जासकती | प्रेम के ही चारों और तो यह विश्व घूमता है । आदि सृष्टि के समय ही स्वयं ब्रह्म प्रेम के बिना नहीं रह पाता--" तस्मैदेकाकी स नेव रेमे , तत द्वितीयमेच्छ्त |" - अकेला ब्रह्म रमण नहीं कर सका, उसने दूसरे की इच्छा की, एवम शक्ति प्रकट हुई । सारे हिन्दू ग्रन्थ प्रेम व काम भावना के कथनों, कथाओं से भरे हैं, सभी हिन्दू देवता सपत्नी हैं, भोग में संलग्न। तप व साधना, कर्तव्य,प्रेम व भोग भारतीय् संस्कृति व जीवन के आधार हैं -- मानव जीवन के भी ।
हाँ , काम शास्त्र , कोकशास्त्र, खजुराहो, आदि भारतीय व्यवस्थाएं हैं । प्रेम के ऊपर तो उंगली उठाई ही नहीं जासकती | प्रेम के ही चारों और तो यह विश्व घूमता है । आदि सृष्टि के समय ही स्वयं ब्रह्म प्रेम के बिना नहीं रह पाता--" तस्मैदेकाकी स नेव रेमे , तत द्वितीयमेच्छ्त |" - अकेला ब्रह्म रमण नहीं कर सका, उसने दूसरे की इच्छा की, एवम शक्ति प्रकट हुई । सारे हिन्दू ग्रन्थ प्रेम व काम भावना के कथनों, कथाओं से भरे हैं, सभी हिन्दू देवता सपत्नी हैं, भोग में संलग्न। तप व साधना, कर्तव्य,प्रेम व भोग भारतीय् संस्कृति व जीवन के आधार हैं -- मानव जीवन के भी ।
वस्तुतः प्रेम है क्या, शाश्वत प्रेम क्या है ? शाश्वतता, तप, संयम, साधना में जो निपुण है वही प्रेम का अधिकारी है, वही शाश्वत प्रेम है। खजुराहो मन्दिर है, न कि बाज़ार में मूर्तियां खडी की गईं हैं, काम शास्त्र आदि बच्चों को पढने के लिये नहीं कहा जाता, प्रेम बाज़ार में व प्रदर्शित करने वाली वस्तु भी नहीं है, प्रेम का कोई एक दिन भी निर्धारित नहीं होता। फ़िर भारत में पूरा माह ही वसन्त, होली का है तो किसी एक अन्य दिन की क्या आवश्यकता?
संयम, साधना, तप व प्रेम का अन्तर्संबन्ध के लिये भारतीय शास्त्रों की एक मूल कथा, जो विश्व में सर्व श्रेष्ठ श्रृंगार- युक्त रचना है, ""कुमार सम्भव "" की कथादेखिये । कालिदास द्वारा रचित इस महाकाव्य में-- जब अथाह यौवन की धनी पार्वती जी शिवजी की पूजा करके पुष्प अर्पित कर रही होती हैं तभी देवताओं के षडयन्त्र के तहत कामदेव अपना काम बाण छोडता है, शिव की तपस्या भन्ग होती है, वे मोहित नज़रों से सामने खडी पार्वती को देखते हैं, प्रसन्न होते हैं, परन्तु तुरन्त ही अपने क्षोभ का कारण ढूढते हैं। पल्लवों की ओट में छुपा कामदेव उनकी नज़र पडते ही भष्म होजाता है, शिव तुरन्त तपस्या के लिये चले जाते हैं, देवोंको अपनी असफ़लता सालती है कि इतने रूप सौन्दर्य व काम-वाण से भी शिवजी को लुभा नही पाये। पार्वती जी पुनः घोर तप में लीन होतीं, अन्तत स्वयम शिव, पार्वती से अपने छद्म रूप में शिव की बुराइयां करते हैं कि-- हे देवी एसा कौन मूर्ख है या सर्वशक्तिमान है जो आप जैसी सौन्दर्य की प्रतिमा के कठोर तप से भी अनजान है, पार्वती की सखि के -शिव - कहने पर वे कहते हैं-- शिव हैं, अघोरी, प्रथम मिलन की रात्रि को ही प्रथम स्पर्श ही सर्प से होगा, भन्ग धतूरा खाने वाले से क्या करना। पार्वती के क्रोधित होने पर वे, प्रकट होकर उनका वरण करते हैं।
अर्थ है कि शिव अर्थात कल्याणकारी् व शाश्वत प्रेम के लिये स्त्री को तप व साधना करनी होती है। कामशर से विंधे होकर भी शिव उनका पाणिग्रहण नही करते, अर्थात वे इतने सौन्दर्य की मालिक स्त्री , प्रेम व ग्रहस्थ जीवन के काबिल स्वयम अभी नहीं हैं अतः अभी और तप साधना की आवश्यकता है, यह पुरुष की तप व साधना है, प्रेम , व भोग से पहले। पार्वती पुनः कठिन तप करती हैं, न कि नाराज़ होती हैं, कि अभी वे कल्याण कारी प्रेम व भोग के लिये समर्थ नहीं है और तप चाहिये।
आकर्षण व प्रेम में अन्तर है। प्रेम- तप, स्थिरता,साधना शाश्वतता को कहा जाता है, नकि यूंही ’आई लव यू’ कहने को, किसी को भी गुलाव देदेनेको। प्रेम मौन होता है, मुखर नही, आकर्षण मुखर होता है। साधना, तप ( पढ लिख कर समर्थ बनना) के पश्चात ही प्रेम कल्याण कारी होता है। यूही असमय बाज़ार में प्रदर्शन से नहीं।
समस्त भारतीय, शास्त्रों, ग्रन्थॊं, धर्म, दर्शन का मूल भाव यही ’संयम,तप साधना युक्त प्रेम व भोग’ है - ”प्रेम न वाडी ऊपज़ै,प्रेम न हाट बिकाय"
संयम, साधना, तप व प्रेम का अन्तर्संबन्ध के लिये भारतीय शास्त्रों की एक मूल कथा, जो विश्व में सर्व श्रेष्ठ श्रृंगार- युक्त रचना है, ""कुमार सम्भव "" की कथादेखिये । कालिदास द्वारा रचित इस महाकाव्य में-- जब अथाह यौवन की धनी पार्वती जी शिवजी की पूजा करके पुष्प अर्पित कर रही होती हैं तभी देवताओं के षडयन्त्र के तहत कामदेव अपना काम बाण छोडता है, शिव की तपस्या भन्ग होती है, वे मोहित नज़रों से सामने खडी पार्वती को देखते हैं, प्रसन्न होते हैं, परन्तु तुरन्त ही अपने क्षोभ का कारण ढूढते हैं। पल्लवों की ओट में छुपा कामदेव उनकी नज़र पडते ही भष्म होजाता है, शिव तुरन्त तपस्या के लिये चले जाते हैं, देवोंको अपनी असफ़लता सालती है कि इतने रूप सौन्दर्य व काम-वाण से भी शिवजी को लुभा नही पाये। पार्वती जी पुनः घोर तप में लीन होतीं, अन्तत स्वयम शिव, पार्वती से अपने छद्म रूप में शिव की बुराइयां करते हैं कि-- हे देवी एसा कौन मूर्ख है या सर्वशक्तिमान है जो आप जैसी सौन्दर्य की प्रतिमा के कठोर तप से भी अनजान है, पार्वती की सखि के -शिव - कहने पर वे कहते हैं-- शिव हैं, अघोरी, प्रथम मिलन की रात्रि को ही प्रथम स्पर्श ही सर्प से होगा, भन्ग धतूरा खाने वाले से क्या करना। पार्वती के क्रोधित होने पर वे, प्रकट होकर उनका वरण करते हैं।
अर्थ है कि शिव अर्थात कल्याणकारी् व शाश्वत प्रेम के लिये स्त्री को तप व साधना करनी होती है। कामशर से विंधे होकर भी शिव उनका पाणिग्रहण नही करते, अर्थात वे इतने सौन्दर्य की मालिक स्त्री , प्रेम व ग्रहस्थ जीवन के काबिल स्वयम अभी नहीं हैं अतः अभी और तप साधना की आवश्यकता है, यह पुरुष की तप व साधना है, प्रेम , व भोग से पहले। पार्वती पुनः कठिन तप करती हैं, न कि नाराज़ होती हैं, कि अभी वे कल्याण कारी प्रेम व भोग के लिये समर्थ नहीं है और तप चाहिये।
आकर्षण व प्रेम में अन्तर है। प्रेम- तप, स्थिरता,साधना शाश्वतता को कहा जाता है, नकि यूंही ’आई लव यू’ कहने को, किसी को भी गुलाव देदेनेको। प्रेम मौन होता है, मुखर नही, आकर्षण मुखर होता है। साधना, तप ( पढ लिख कर समर्थ बनना) के पश्चात ही प्रेम कल्याण कारी होता है। यूही असमय बाज़ार में प्रदर्शन से नहीं।
समस्त भारतीय, शास्त्रों, ग्रन्थॊं, धर्म, दर्शन का मूल भाव यही ’संयम,तप साधना युक्त प्रेम व भोग’ है - ”प्रेम न वाडी ऊपज़ै,प्रेम न हाट बिकाय"
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