कितना शीतल कितना सुंदर,
राकापति तेरा अंतस्थल |
ये रजत रश्मियाँ तो चंचल,
हैं रहीं चूम जगती का तल ||
ये रजत वस्त्र से आच्छादित,
जगती का सुंदर, सित अंचल |
यूँ निशा हुई मानो प्रबुद्ध ,
पाकर के प्रियतम का अंचल ||
हो गयी धरा यूं रजतमयी,
अलकों पर फ़ैली खुशहाली |
स्वप्नों में लोग बिचरते हैं,
ऊपर फ़ैली यह उजियाली ||
क्या नदी तीर का द्रश्य अहा!
अस्थिर लहरों की चंचलता |
हैं सोम-रश्मि भी थिरक रहीं,
पाकर जल दिव्य विभूति भरा ||
मैं इस नीरव में खडा हुआ,
हूँ रहा सोच जीवन क्या है |
लहरों की चंचलता बोलो,
जीवन क्या है, जीवन क्या है!!
क्या कहा सतत बहना जीवन,
हंसना मुस्काना है जीवन |
जीवन में विश्व समाया है,
कर्तव्य विश्व का है जीवन ||
दे ताल नृत्य की, थिरक रहीं,
किरणो ! तुम भी तो कुछ बोलो |
है पीड़ा की यह ग्रंथि बंधी ,
अंतस में तुम ही कुछ खोलो ||
पीड़ा ही जीवन , अहो क्या!
पीड़ा ही सच्चा जीवन है !
अनुराग भरी जो पीड़ा हो,
वह मानव का नवजीवन है ||
कल कल कल लहरें चलीं गयीं ,
सागर से मिलने को अधीर |
असफल सा करता था प्रयास ,
पर रोक सका कब उन्हें तीर ||
था महासत्य सा खुला हुआ,
झंकृत करता, मन नेत्र प्राण |
चंचल लहरें वे चली गईं ,
मैं भला मांगता क्या प्रमाण ||
सुंदरता निर्जन पृथ्वी की,
अपने विचार भी तो कुछ दो |
इस महाशांति की बेला में,
बोलो तुम भी तो, चुप क्यों हो?
गंभीर घोष सा कानों में ,
अनहद का गूंजा नाद वहीं |
क्यों भटक रहे हो ख्यालों में,
सच्चा जीवन है यहीं कहीं ||
इस शांतिपूर्ण और नीरवमय,
बेला की सुंदरता लेखो |
साकार कल्पनाएँ कर लो,
जीवन को जी भर कर देखो ||
हैं रहीं चूम जगती का तल ||
ये रजत वस्त्र से आच्छादित,
जगती का सुंदर, सित अंचल |
यूँ निशा हुई मानो प्रबुद्ध ,
पाकर के प्रियतम का अंचल ||
हो गयी धरा यूं रजतमयी,
अलकों पर फ़ैली खुशहाली |
स्वप्नों में लोग बिचरते हैं,
ऊपर फ़ैली यह उजियाली ||
क्या नदी तीर का द्रश्य अहा!
अस्थिर लहरों की चंचलता |
हैं सोम-रश्मि भी थिरक रहीं,
पाकर जल दिव्य विभूति भरा ||
मैं इस नीरव में खडा हुआ,
हूँ रहा सोच जीवन क्या है |
लहरों की चंचलता बोलो,
जीवन क्या है, जीवन क्या है!!
क्या कहा सतत बहना जीवन,
हंसना मुस्काना है जीवन |
जीवन में विश्व समाया है,
कर्तव्य विश्व का है जीवन ||
दे ताल नृत्य की, थिरक रहीं,
किरणो ! तुम भी तो कुछ बोलो |
है पीड़ा की यह ग्रंथि बंधी ,
अंतस में तुम ही कुछ खोलो ||
पीड़ा ही जीवन , अहो क्या!
पीड़ा ही सच्चा जीवन है !
अनुराग भरी जो पीड़ा हो,
वह मानव का नवजीवन है ||
कल कल कल लहरें चलीं गयीं ,
सागर से मिलने को अधीर |
असफल सा करता था प्रयास ,
पर रोक सका कब उन्हें तीर ||
था महासत्य सा खुला हुआ,
झंकृत करता, मन नेत्र प्राण |
चंचल लहरें वे चली गईं ,
मैं भला मांगता क्या प्रमाण ||
सुंदरता निर्जन पृथ्वी की,
अपने विचार भी तो कुछ दो |
इस महाशांति की बेला में,
बोलो तुम भी तो, चुप क्यों हो?
गंभीर घोष सा कानों में ,
अनहद का गूंजा नाद वहीं |
क्यों भटक रहे हो ख्यालों में,
सच्चा जीवन है यहीं कहीं ||
इस शांतिपूर्ण और नीरवमय,
बेला की सुंदरता लेखो |
साकार कल्पनाएँ कर लो,
जीवन को जी भर कर देखो ||
3 टिप्पणियाँ:
इस शांतिपूर्ण और नीरवमय,
बेला की सुंदरता लेखो |
साकार कल्पनाएँ कर लो,
जीवन को जी भर कर देखो ||
बहुत ही गहनाभिब्यक्ति /सुंदर शब्दों के साथ लिखी बेमिसाल रचना /बहुत बधाई आपको /
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है /जरुर आइये /
www.prernaargal.blogspot.com
गंभीर घोष सा कानों में ,
अनहद का गूंजा नाद वहीं |
क्यों भटक रहे हो ख्यालों में,
सच्चा जीवन है यहीं कहीं ||
बहुत सुन्दर
सुंदरता निर्जन पृथ्वी की,
अपने विचार भी तो कुछ दो |
इस महाशांति की बेला में,
बोलो तुम भी तो, चुप क्यों हो::::
बादलों से आंख मिचौनी करते चांद फोटो के साथ यह मैं आपको भेजना चाहता हूं क्या यह संभव है
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