सोमवार, 11 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार की आंधी में कुछ और भी .....

11.7.11

धैर्य क्या है , धैर्य से क्या मिलेगा , चार चीजें. प्यार , आदर, आत्मविश्वाश, श्रद्धा


what we get from patience, धैर्य से लाभ

       
धैर्य की इससे सुंदर परिभाषा मैंने नहीं देखि .
(श्री विशाल गुप्ता जी से कॉपी किया )

पहले ओरिजिनल इंग्लिश में :


Patience    with family is   love           
,
Patience    with others is  respect,     

Patience    with self is        confidence

and

Patience    with GOD is     Faith.         



यानि 


धैर्य से ही     परिवार में     प्यार             मिलता है 


धैर्य से ही     दूसरों से        आदर            मिलता है 


धैर्य से ही     अपने में        आत्मविश्वाश मिलता है 


धैर्य से ही     भगवान में     श्रद्धा             होती है     




इसीलिए शायाद धर्म के दस लक्षणों में सबसे पहला लक्षण धैर्य ही है 


यथा : 


मनुस्मृति  6/92
धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना । परमात्मा की सृष्टि को धारण करने या बनाये रखने के लिए जो कर्म और कर्तव्य आवश्यक हैं वही मूलत: धर्म के अंग या लक्षण हैं । उदाहरण के लिए निम्न श्लोक में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं :-
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: 
धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं धर्म लक्षणम् 

विपत्ति में धीरज रखनाअपराधी को क्षमा करनाभीतरी और बाहरी सफाईबुद्धि को उत्तम विचारों में लगानासम्यक ज्ञान का अर्जनसत्य का पालन ये छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना,चोरी न करनाइन्द्रिय लोलुपता से बचनाक्रोध न करना ये दस  उत्तम अकर्म हैं 

धर्म की इस लाक्षणिक परिभाषा में देवता, अवतार या किसी कर्मकांड की चर्चा नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने भी हिन्दू को पूजा पद्धति की बजाय एक जीवन शैली स्वीकार किया है।


तो फिर पाप पुण्य क्या है : 

अष्टादश पुराणेशु व्यासस्य वचनम् द्वयम्
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम्।।
अर्थात- अठारह पुराणों में व्यास जी ने दो ही बातें कही हैं कि परोपकार करना पुण्य और दूसरे को सताना पाप है।

    

1 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नीति (सदाचरण) को धारण करके कर्म करना एवं इनकी स्थापना करना ।
व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके, उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है ।
असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म होता है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । वर्तमान में न्यायपालिका भी यही कार्य करती है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म पालन में धैर्य, संयम, विवेक जैसे गुण आवश्यक है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
व्यक्ति विशेष के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर की उपासना, दान, पुण्य, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है । by- kpopsbjri

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