रविवार, 12 जून 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य..तृतीय रचना -विश्व-बंधुत्व ... पंचम सुमनान्जलि(क्रमश:)..--.----डा श्याम गुप्त


                                  प्रेम किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक   विहंगम  भाव है | प्रस्तुत है- पंचम -सुमनान्जलि..समष्टि-प्रेम....जिसमें देश व राष्ट्र -प्रेम , विश्व-वन्धुत्व  व मानव-प्रेम निहित ...७ गीत व कवितायें ...... देव दानव मानव,  मानव धर्म,  विश्व बंधुत्व ,  गीत लिखो देश के,  बंदेमातरम ,  उठा तिरंगा हाथों  में  व  ऐ कलम अब छेड़ दो.... प्रस्तुत की जायेंगीं |  प्रस्तुत है .....तृतीय  कविता ......


..विश्व बंधुत्व .......


बृक्ष   वही   तो कहलाते हैं,

वही  प्रशंसा  भी पाते हैं  |

सोते   बसते   छाया   में मृग,

और  जहां  पक्षी  आते हैं ||



मरकट गण जिनकी डालों पर,

उछल उछल हरषाते रहते  |
कीट-पतंगे जिनपर पलते ,
भौंरे पुष्पों का रस लेते  ||

 
खगकुल जिनके तरुशिखरों पर,
जीवन का संगीत सुनाते |
 विश्व प्रेम हित सभी प्राणियों-
को अपना सर्वस्व लुटाते ||



मानव हो या बृक्ष, देव बन,

जो सबको देता रहता है  |

सभी प्राणियों को सुख देता,

सबका प्रिय भाजन बनता है ||



विश्व प्रेम की ज्योति जलाकर ,

वही प्रेम का दीप जलाता |

विश्व प्रेम वाहक बनता है,

जग को आलोकित कर जाता ||



2 टिप्पणियाँ:

हरीश सिंह ने कहा…

sandar prastuti.

Unknown ने कहा…

खुश हुई यह कविता पढकर
जय जगन्नाथ

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