बुधवार, 29 जून 2011

मारिया – पार्ट 2 -- कैस जौनपुरी

मारिया  ‘करीम बाबा’ को अपने साथ अपने घर ले आई. घरवालों ने पूछा “ये क्या मुसीबत है...?” मारिया ने किसी तरह अपने घर वालों को समझा-बुझा कर करीम को कुछ दिनों के लिए अपने पास रखने पर मना लिया...मारिया थी ही ऐसी कि उसकी बात भला कोई कैसे टाल सकता था...खुद करीम भी तो नहीं टाल पाया था और अब न चाहते हुए भी मारिया के ऊपर बोझ बन बैठा था...

करीम को ये बात खाए जा रही थी...कि उसकी वजह से मारिया को लोगों  की बातें सुननी पड़ रही  हैं...उसने मारिया से कहा...”मुझे  जाने दो...” मगर मारिया अपनी उंगली का एक इशारा दिखाती थी और करीम चुप हो जाता था...

कुछ दिन  बीते...करीम ने सोचा...”मारिया  तो मेरी बात मानने वाली है नहीं...लेकिन मेरी वजह  से मारिया को तकलीफ हो रही  है...तुम कैसे आदमी हो...बेचारी मारिया ने तो तुम्हारे लिए  क्या-क्या किया...और तुमने...? तुम मारिया के ऊपर ही बोझ बन बैठे....? धिक्कार है तुमपर...” खुद को जी भर के कोस लेने के बाद अगली सुबह होने से पहले ही करीम भोर में ही मारिया के घर से निकल गया....ताकि मारिया को पता भी न चले...वर्ना...वो किसी भी कीमत पर उसे जाने नहीं देगी....

करीम मारिया के घर से निकल कर जल्दी-जल्दी पास के रेलवे स्टेशन पहुँच गया...करीम ट्रेन का इन्तजार कर रहा था...थोड़ी ही देर में ट्रेन भी आ गई थी...करीम को लगा कि अब मारिया को उसकी वजह से परेशानी नहीं होगी...और वो ट्रेन को प्लेटफार्म पर रुकते हुए देख रहा था...जाना तो वो भी नहीं चाह रहा था...मगर उसकी वजह से मारिया को परेशानी हो रही थी....ये उसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था.

उसने देखा कि ट्रेन अब प्लेटफार्म पर आ चुकी है...सुबह-सुबह का वक्त था इसलिए ट्रेन के इंजन के पास कोहरा और धुआं भी था...करीम ने एक आखिरी बार  मारिया को याद किया...और चलने के लिए उठा....तभी धुएं और कोहरे के बीच से मारिया आती हुई दिखाई दी...करीम का तो ये हाल हुआ कि कहाँ भाग जाए ताकि मारिया की बातें न सुननी पड़ें...क्योंकि वो मारिया के किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे पायेगा...और मारिया उसे खूब डांटेगी...करीम ये सब सोच ही रहा था...तब तक मारिया उसके पास आ चुकी थी...मारिया ने पूछा...”कहाँ जा रहे हो..?” करीम ने कुछ नहीं कहा...करीम एक गुनाहगार की तरह सिर झुकाए खड़ा था. मारिया की बातें उसके कानों तक जा तो रहीं थीं मगर उसके बाद उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था...

मारिया  ने फिर पूछा...”क्यूँ जा रहे थे...?” करीम ने कहा...”मारिया...! मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से लोग तुम्हें कुछ कहें...इसलिए....” मारिया ने बात बीच में ही काटकर कहा...”इसलिए तुम चल दिए...घर छोड़कर...बिना बताये....और तुम्हें लगा कि तुम यूँ ही निकल जाओगे...करीम...! तुम समझते क्यों नहीं...? मैं कैसे समझाऊं तुम्हें...? एक तो मैं खुद लोगों के सवालों का जवाब दे-दे कर परेशान हूँ...उसपर से तुम बिना बताये चल दिए...तुम्हारे जाने के बाद लोग जब मुझसे पूछेंगे कि तुम क्यूँ चले गए? तो मैं क्या बताउंगी...? बोलो...? जवाब दो...?

करीम ने कहा...”यही तो मैं नहीं चाहता कि लोग तुमसे सवाल करें....” मारिया ने फिर कहा...”तुमने तो ये चाह लिया...लेकिन क्या कभी तुमने ये सोचा है कि मारिया क्या चाहती है...?” सवाल बहुत भारी था...इतना भारी कि करीम की आँखों में आंसू आ गए...और मारिया भी खुद को रोक न सकी...करीम आसमान की तरफ सवाल भरी नज़र से देखने लगा...फिर उसे शायद कुछ बोलने की हिम्मत मिली...उसने कहा...”मारिया...! तुम जो चाहती हो वो ज्यादा दिन तक टिकने वाला नहीं है... क्योंकि तुम्हारा दिल साफ़ है...और इस जाहिल दुनिया में साफ़ दिल वालों की कोई कद्र नहीं करता...एक न एक दिन यही लोग तुम्हें मजबूर कर देंगे...और तब तक हालात और खराब हो चुके रहेंगे...मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से तुम मुसीबत में आओ...”

मारिया  करीम की आँखों में देख  रही थी....उन आँखों में  जिनमें कोई उम्मीद नहीं दिखाई  दे रही थी...जो बेबस हो चुकी थीं...मारिया उन खामोश आँखों में चमक लाना चाहती थी...’करीम बाबा’ को सिर्फ करीम बनाना चाहती थी...उसने कहा...”करीम..! बस बहुत हुआ...अब तुम वादा करो...दुबारा ऐसी हरकत नहीं करोगे...बिना बताये तुम कहीं नहीं जाओगे...अब चलो मेरे साथ....” करीम ने देखा...मारिया की आँखों में एक अपनापन था...मारिया ने अपनी जानी-पहचानी उंगली से इशारा किया...”चलो...” और करीम मारिया के पीछे-पीछे चल दिया...

रास्ते  में मारिया सोच रही थी कि क्या ऐसा करे जिससे  करीम का हुलिया ठीक हो जाए...? इसके लिए वो करीम को नाई की दुकान पर ले गई...करीम कहता रहा...”ठीक है...मारिया...! ये सब करने की कोई जरूरत नहीं है...मेरी पहचान तो मत मिटाओ...” मगर मारिया उस ‘करीम बाबा’ को एक पल भी और नहीं देखना चाहती थी...लाख मना करने के बावुजूद मारिया नहीं मानी और करीम कुछ कर भी न सका...आखिर मारिया जो कुछ भी कर रही थी...करीम के भले के लिए ही तो कर रही थी...नाई की दुकान से बाहर निकलने पर ‘करीम बाबा’ कहीं खो चुका था...अब जो शख्स मारिया के सामने था वो उसका करीम था...सिर्फ करीम...मारिया ने रास्ते में नए कपड़े भी ले लिए...और घर पहुँचने से पहले ही मारिया ने करीम का हुलिया बदल दिया था...

करीम खुद, खुद को नहीं पहचान पा रहा था...लेकिन मारिया खुश थी इस नए करीम को देखकर...घरवालों के सामने आकर मारिया ने बड़ी गर्मजोशी से सबको बताया....लोगों ने मुंह पर तो कुछ नहीं कहा...मगर घरवालों को कुछ खास खुशी नहीं हुई थी...करीम को वापस देखकर...वो भी इस नए अवतार में...

मारिया  को लगा...कहीं करीम फिर न भाग जाए...? इसके लिए उसने करीम को ज्यादा वक्त देना शुरू कर दिया...दोनों घंटों बातें करते रहते...कभी-कभी मारिया खिलखिलाकर हँसती थी तो घरवाले चिढ़ जाते थे...घरवालों को मारिया की करीम से ये नजदीकी देखी नहीं जा रही थी...धीरे-धीरे करीम की हालत में सुधार आने लगा...अब करीम भी हँसने-बोलने लगा था.....और अब तो वो सबकी तरह एक इज्जतदार आदमी लगता था....मगर मारिया का उसके साथ यूँ वक्त बिताना उसके घरवालों को अंदर ही अंदर साल रहा था...

धीरे-धीरे मारिया से सवाल-जवाब भी किये जाने लगे कि...”ठीक है...तुमने  किसी की मदद की...मगर इतना भी क्या कि...हर वक्त उसी के पास बैठी रहो...हंसती रहो...कितना  भी है...है तो पराया ही ना....”  ये सब सुनकर मारिया का दिल  दुःख जाता था मगर करीम को देखकर वो सबकुछ पी जाती थी...कुछ नहीं कहती थी...उसे बस करीम की चिंता हो रही थी कि...”कहीं घरवाले करीम से कुछ न कह दें...?”

और जैसे-जैसे करीम की मुस्कराहट और हंसी वापस आ रही थी...मारिया के घरवालों का सुकून कम होता जा रहा था...

और एक दिन वो दिन आ ही गया...जिससे  करीम घबरा रहा था...घरवालों ने अब करीम के सामने ही मारिया को बुरा-भला कहना शुरू कर दिया और करीम को भी कहने लगे...”पता नहीं कहाँ से चले आते हैं लोग...दूसरों के सहारे कैसे कोई जीता है...और भला कब तक...?” करीम को घरवालों की बात का सीधा-सीधा मतलब पता था कि वो उसे पसंद नहीं करते थे और वो लोग चाहते थे कि कितनी जल्दी ये घर छोड़कर चला जाए....

और एक दिन जमकर हंगामा हुआ...मरिया  को बहुत कुछ सुनना पड़ा...इतना कि करीम को बर्दाश्त नहीं हुआ...उसके पास कोई सामान तो था नहीं...जो कुछ था सब मारिया ने ही दिया था...इसलिए वो जैसे खाली हाथ  आया था उसी तरह खाली हाथ जाने भी लगा...मारिया ने उसे आगे बढ़कर रोकना चाहा मगर बीच में घरवाले आ गए...”अब वो खुद ही जा रहा है तो तुम क्यों रोक रही हो...?” मारिया ने बंधन तोड़कर करीम को रोकना चाहा मगर उसे पकड़ लिया गया था...

मारिया  ने देखा... करीम उसे उदास नज़रों से देख रहा है...और एक बार मारिया से नज़र मिलने के बाद करीम ने कदम आगे बढ़ा दिए...अब मारिया के होश उड़ चुके थे...मारिया ने चीखकर कहा....”करीम...! मत जाओ...रुक जाओ करीम...!” मगर अब करीम रुकना नहीं चाह रहा था...जो कुछ भी हो रहा था उसकी वजह करीम खुद को ही मान रहा था...इसलिए वो नहीं चाहता था मारिया की हंसती-खेलती जिंदगी और बर्बाद हो...वैसे भी काफी कुछ पहले ही बिगड़ चुका था...

मारिया  जितना हो सकता था चीखी...चिल्लाई...मगर  खुद को घरवालों की पकड़  से छुडा न सकी...वर्ना वो किसी कीमत पे करीम को अपनी आँखों  के सामने यूँ जाने न देती...मारिया रोते-रोते कहती रही...”करीम...मत जाओ...रुक जाओ करीम...!” मगर करीम ने अपना दिल मजबूत कर लिया था...उसने सोच लिया था कि पीछे मुड़के नहीं देखूंगा नहीं तो अगर मारिया ने फिर अपनी उंगली का इशारा किया तो आगे नहीं बढ़ पाऊंगा.....

उधर मारिया अपनी उंगली का इशारा करना चाह रही थी...मगर उसके बाजुओं को कई लोगों ने पकड़ रखा था...मारिया वो एक इशारा न कर सकी और करीम को रोक न सकी...जब करीम मारिया की नज़र से ओझल हो गया तब उसकी रही-सही हिम्मत भी टूट गई...और उसने खुद को ढीला छोड़ दिया...घरवालों ने भी उसे छोड़ दिया...मारिया वहीँ जमीन पर लुढक गई...उसे अपनी हथेलियाँ जमीन पर दिखाई दीं...उसे अपनी वो ऊँगली भी दिखाई दी जिससे वो इशारा करती थी और जिसे देखकर करीम उसकी हर बात मान लेता था...

मारिया  को लगा कि उसकी उस उंगली में अब कोई ताकत नहीं बची है...ऐसा ख्याल आते ही मारिया की आँखों से भरभरा के आंसू बहने लगे....मारिया का दिल भी रो रहा था...उसे लगा जैसे कोई बहुत कीमती चीज खो गई हो...करीम से उसका जो रिश्ता था उसे किसी ने नहीं समझा...और सबने गलत नज़र से ही देखा....

उधर करीम किसी तरह मारिया के घर से निकल तो आया....मगर रास्ते में  उसे एक टूटा हुआ आईना दिखा...करीम को उस आईने में अपनी शकल दिखाई दी...करीम को अपनी खुद की शकल एक अजनबी जैसी लगी...जैसे वो उस शकल को पहचानता ही न हो...अब उसे अहसास हो रहा था कि उसके साथ क्या-क्या हुआ...? अब वो सोच रहा था कि अब वो कहाँ जाएगा...? क्या करेगा...? क्या खायेगा...? करीम बाबा के पास कम से कम एक पहचान तो थी...झूठी ही सही...लोग उसकी इज्जत तो करते थे...अब इस शकल में जिसमें वो एक पढ़ा-लिखा इंसान नज़र आ रहा था...जिस शकल को लेकर वो कहीं बैठ भी नहीं सकता था...उसका वो ‘करीम बाबा’ वाला लबादा भी मारिया के पास ही रह गया था...और फिर अब उसे लोग करीम बाबा मानेगें भी तो नहीं...करीम बड़ी मुश्किल में फंस चुका था...वो ऐसे दोराहे पर खड़ा था जहाँ उसके हिस्से में कुछ नहीं आ रहा था...इतने सालों तक ‘करीम बाबा’ की जिंदगी जीते-जीते वो सबकुछ भूल चुका था...उसके पास कोई सबूत भी नहीं था कि वही करीम बाबा है...जिसको दिखाकर वो वापस अपने डेरे पर पहुँच जाए ताकि कम से कम खाने का तो इंतजाम हो सके...अब उसके चेहरे पर एक गुस्से का सा भाव आने लगा...उसे अपनी जिंदगी नरक होती दिखाई दे रही थी...अब तो इस हालत में उसे कोई भीख भी नहीं देगा...और फिर से ‘करीम बाबा बनने की कोशिश में जान निकल जायेगी...और फिर अब वो पहले वाली मारिया से मिलने की प्यास भी तो बुझ चुकी थी...क्योंकि मारिया से मिलकर क्या मिला था ये उसने देख लिया था...और खुद मारिया कितनी मुसीबत में आ गयी थी...ये तो करीम ने कभी सोचा भी नहीं था...

करीम ने आसमान की तरफ नज़र उठाकर देखा...”वाह रे ऊपरवाले...क्या गजब खेल रचाया तुने...? मारिया को बदनाम भी कर दिया...मुझे वापस वहीं लाकर खड़ा कर दिया जहाँ से मैंने शुरू किया था...” सबसे बड़ी मुसीबत थी कि करीम रहेगा कहाँ...? खायेगा क्या...? उसके पास तो पैसे भी नहीं थे...उसके पास तो कुछ भी नहीं था...जो कुछ था वो सब छोड़कर मारिया के साथ आ गया था...अब किस मुहं से वापस जाता...मारिया ने तो उसका भला करने की कोशिश में उससे उसकी पहचान भी छीन ली थी...

करीम उस टूटे हुए आईने को लेकर वहीँ एक पेड़ के सहारे बैठ गया...उसने एक बार फिर खुद को उस टूटे हुए आईने में देखा...करीम को खुद पर हंसी आ गई...उधर मारिया बेसुध पड़ी थी...इधर करीम बेसुध पड़ा था.... 
                                                                                                                कैस जौनपुरी

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