------ प्रेम के विभिन्न भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत चतुर्थ -सुमनांजलि- प्रकृति - में प्रकृति में उपस्थित प्रेम के विविध उपादानों के बारे में, नौ विभिन्न अतुकान्त गीतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो हैं--भ्रमर गीत, दीपक-राग, चन्दा-चकोर, मयूर-नृत्य , कुमुदिनी, सरिता-संगीत, चातक-विरहा, वीणा-सारंग व शुक-सारिका... । प्रस्तुत है षष्टः गीत----सरिता संगीत ....
नदिया !
तुम कहाँ जाती हो ?
दिशाहीन , उद्देश्यहीन,
कभी खिलखिलाती हुई-
उच्छ्रंख्ल बालिका की तरह,
पत्थरों से टकराकर, उछलती हुई |
कभी गहराकर, गंभीर समतल में -
सोचती सी बहती हुई,
लहराती हुई |
और अंत में होजाती हो,
सागर में विलीन,
अस्तित्वहीन ||
नदिया मुस्कुराई ,
कल कल कल कल , खिलखिलाई ;
फिर लहर लहर लहराई |
यह जीवन लहरी है,
कहीं उथली ,
कहीं गहरी है |
यह जीवन धारा है,
प्रेम प्रीति का रस न्यारा है ||
प्रियतम की डोर बांधे,
मन को साधे ,
जीवन की ऊंची-नीची, डगर डगर-
चलते जाना ही तो जीवन है |
प्रेम की साध लिए,
प्रियतम की राह में ;
मिलने की आस लिए,
चलना ही रीति है ;
यही तो प्रीति है |
सर्वस्व लुटा देना,
अपने को भुला देना ,
अस्तित्व विहीन होकर;
प्रिय में लय कर देना ,
यह प्यार की जीत है;
यही तो प्रीति है ||
1 टिप्पणियाँ:
वाह, क्या बात है. बहुत बढिया
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