महिला दिवस पर......डा श्याम गुप्त की कविता ...
आदिशक्ति,अपरा,योगमाया, माया, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, काली,प्रक्रिति, प्रत्येक जड-जंगम में स्थित ऊर्ज़ा, इनर्जी इत्यादि शक्ति के जो भी रूप हैं वे नारी के ही रूप ही हैं । मां, बहन, पत्नी, बेटी, सखी -वस्तुतः प्रत्येक कण मात्र का जो क्रितित्व रूप-भाव है...वह आदि-शक्ति का ही रूप है। पुरुष रूप तो केवल इच्छा व कारण रूप-भाव ही होता है , प्रत्येक वस्तु का क्रिया ,व्यवहार व कर्तत्व तो शक्ति में ही अवस्थित है, परमात्मा के नारी रूप में ही स्थित है...उसी नारी भाव-रूप को समर्पित है यह कविता....
वह .आदि शक्ति.......
वह नव विकसित कलिका बन कर,
सौरभ कण वन वन बिखराती।
दे मौन निमंत्रण भ्रमरों को,
वह इठलाती वह मदमाती।
वह शमा बनी, झिलमिल झिलमिल
झंकृत करती तन मन को।
ज्योतिर्मय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को।
अथवा तितली बन, पंखों को
झिलमिल झपकाती चपला सी,
इठलाती सबके मन को थी,
बारी बारी से बहलाती |
या बन बहार, निर्जन वन को ,
हरियाली से महकाती है।
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ।
वह घटा बनी जब सावन की
रिमझिम रिमझिम बरसात हुई ।
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई।
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है।
सूरज की किरणें बन कर वह,
पृथ्वी पर जीवन लाती है ।
कवि की कविता बन, अंतस में
कल्पना रूप में लहराई।
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकायी।
वह प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें ,यह सिखलाया।
नारी बनकर कोमलता का ,
सौरभ घट उसने छलकाया।
वह भक्ति बनी मानवता को,
दैवीय भाव है सिखलाया ।
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब धरती पर आया ।
वह ऊर्जा बनी मशीनों की,
विज्ञान, ज्ञान धन कहलाई ।
वह आत्मशक्ति मानव मन में ,
कल्पना शक्ति बन कर छाई।
वह लक्ष्मी है वह सरस्वती,
वह काली है वह पार्वती।
वह महाशक्ति है अणु-कण की ,
वह स्वयं शक्ति है कण कण की।
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद नाद वही।
बन के वीणा की तान वही ,
मन वीणा को हरषाती है।
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति ,
नित नए रूप रख आती है।
उस परम तत्व की इच्छा बन,
यह सारा साज़ सजाती है ॥
वह नव विकसित कलिका बन कर,
सौरभ कण वन वन बिखराती।
दे मौन निमंत्रण भ्रमरों को,
वह इठलाती वह मदमाती।
वह शमा बनी, झिलमिल झिलमिल
झंकृत करती तन मन को।
ज्योतिर्मय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को।
अथवा तितली बन, पंखों को
झिलमिल झपकाती चपला सी,
इठलाती सबके मन को थी,
बारी बारी से बहलाती |
या बन बहार, निर्जन वन को ,
हरियाली से महकाती है।
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ।
वह घटा बनी जब सावन की
रिमझिम रिमझिम बरसात हुई ।
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई।
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है।
सूरज की किरणें बन कर वह,
पृथ्वी पर जीवन लाती है ।
कवि की कविता बन, अंतस में
कल्पना रूप में लहराई।
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकायी।
वह प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें ,यह सिखलाया।
नारी बनकर कोमलता का ,
सौरभ घट उसने छलकाया।
वह भक्ति बनी मानवता को,
दैवीय भाव है सिखलाया ।
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब धरती पर आया ।
वह ऊर्जा बनी मशीनों की,
विज्ञान, ज्ञान धन कहलाई ।
वह आत्मशक्ति मानव मन में ,
कल्पना शक्ति बन कर छाई।
वह लक्ष्मी है वह सरस्वती,
वह काली है वह पार्वती।
वह महाशक्ति है अणु-कण की ,
वह स्वयं शक्ति है कण कण की।
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद नाद वही।
बन के वीणा की तान वही ,
मन वीणा को हरषाती है।
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति ,
नित नए रूप रख आती है।
उस परम तत्व की इच्छा बन,
यह सारा साज़ सजाती है ॥
5 टिप्पणियाँ:
आत्मविश्वासी ,प्रेरक,तू है हौसला हमारी
माँ ,बेटी ,हर रूप में तू हें सब से प्यारी
जय हो !''जय हो !''जय हो !''जय हो !''
sundar prastuti, shubhkamna.
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
आपकी रचना अतिसुन्दर
तुम्हीं लक्ष्मी, तु्म्हीं दुर्गा
आदिशक्ति साक्षात् हो....
---सुन्दर.. सौरभ जी..
--सभी को महिला दिवस पर जय हो जय हो जय हो....धन्यवाद..पापी जी, मन्गल जी और हरीश जी
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