शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कोई भी आदमी खुद को आखि़र क्यों सुधारे ? Think about it .

नर हो या नारी, वह स्वकेंद्रित होता है। वह अपने अनुभवों से सीखता है और हर चीज़ को अपने उन्हीं अनुभवों की रौशनी में देखता है जो कि उसके अवचेतन मन में बैठ चुके होते हैं। जो अपने अवचेतन मन की वृत्तियों का विश्लेषण करके उसके नकारात्मक पक्ष से खुद को मुक्त कर लेते हैं, वे सत्पुरूष और सूफ़ी-संत कहलाते हैं। वास्तव में समाज के सच्चे सुधारक भी यही होते हैं। अपना जायज़ा लेने का, निष्पक्ष होकर उसपर विचार करने और लेने का और फिर समाज को सुधारने के लिए सद्-विचारों के प्रसार का काम आसान नहीं होता। अक्सर लोग दौलत-शोहरत और इज़्ज़त को ही सब कुछ मानते हैं। इन चीज़ों को पाने का नाम कामयाबी और इन चीज़ों को न पा सकने का नाम नाकामी समझा जाता है। ऐसे लोगों की नज़र में अपना जायज़ा लेना, खुद को और समाज को सुधारने की कोशिश करना सरासर घाटे का सौदा है। इस कोशिश में दौलत-शोहरत और इज़्ज़त तो मिलती नहीं है, उल्टे पहले से जो कुछ कमा रखा होता है। वह भी सब चला जाता है और समाज की अक्सरियत दुश्मन अलग से हो जाती है। एक सुधारक के रहन-सहन का स्टैंडर्ड इतना नीचे पहुंच जाता है कि न तो वह अपने बच्चों को शहर के सबसे महंगे स्कूल में पढ़ा सकता है और न ही शहर के सबसे ज़्यादा तालीमयाफ़्ता लड़के से अपनी लड़की ही ब्याह पाता है। सुधारक अपने लिए भी ग़रीबी को दावत देता है और अपने बच्चों के लिए भी चाहे वह उसूलपसंद जीवन साथी भले ही ढूंढ ले लेकिन प्रायः होते वे ग़रीब ही हैं।
ग़रीबी कष्ट लाती है, दुख देती है और इंसान सदा से जिस चीज़ से डरता आया है, वह एकमात्र दुख ही तो है। जो दुख उठाने के लिए तैयार नहीं है, वह न तो कभी खुद ही सुधर सकता है और न ही कभी अपने समाज को सुधारने के लिए ही कुछ कर सकता है।
आज समाज में हर तरफ़ बिगाड़ आम है। आम लोग इस बिगाड़ का ठीकरा अपने समाज के ख़ास लोगों पर फोड़कर यह समझते हैं कि अगर हमारे नेता, पूंजीपति और नौकरशाह सुधर जाएं तो फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। वे चाहते हैं कि दूसरे सुधर जाएं और हमारे नेता, पूंजीपति और नौकरशाह खुद भी देश की जनता से यही उम्मीद पाले बैठे हैं कि जनता सुधर जाए तो देश सुधर जाए और सुधरने से हरेक डरता है क्योंकि सभी इस बात को जानते हैं कि सुधरने की कोशिश ग़रीबी, दुख और ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं देगी।
तब कोई भी आदमी खुद को आखि़र क्यों सुधारे ?

6 टिप्पणियाँ:

Swarajya karun ने कहा…

प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक आलेख . आभार.

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

Thanks.
http://commentsgarden.blogspot.com/2011/02/reformation.html

हरीश सिंह ने कहा…

हम लोंगो की आदत सी बाण गयी है दूसरो पर लांछन लगाने की. जिधर देखो लोग यही कहते है की सब भ्रष्ट होई गए है किन्तु मैं समझता हू की भ्रष्टाचार की असली जड़ हम खुद है. चुनाव आने पर हम सही व्यक्ति को नहीं देखते, बस यही देखते है की वह मेरे धर्म मेरी जाति का है की नहीं. वह कितना खर्च कर रहा है. आज इमानदार लोग चुनाव लड़ना नहीं चाहता क्योंकि लोग पैसा खर्च करने वाले के पीछे पड़े रहते है. जब भ्रष्ट लोंगो को चुनकर हम भेजते है तो ईमानदारी की अपेक्षा क्यों. जब किसी को कुछ कहिये तो बस यही कहेगा की एक मेरे से क्या होगा. अरे भाई बूँद बूद से सागर भरता है. एक एक आदमी जमा होकर ही भीड़ की शक्ल अख्तियार करता है. हम चाहते है की भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद पैदा हो किन्तु पडोसी के घर में. जब तक यह सोच बनी रहेगी बदलाव नहीं आ सकता.
अच्छा लेख, आभार.

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

@ भाई हरीश जी ! जब तक लोगों को सुधरने का असली लाभ नहीं बताया जाएगा वे भला क्यों सुधरेंगे ?
आप यह बताइए कि कोई आदमी हराम का माल कमाना छोड़कर अपना जीवन स्तर आखिर घटिया क्यों बनाए ?

शिव शंकर ने कहा…

प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक आलेख . आभार.

shyam gupta ने कहा…

सही कहा हरीश जी...सभी यह कहते हैं कि मैं तो ठीक हूं पर वह नहीं मानता...
---.पर उपदेश कुशल बहुतेरे..
--- हम सुधरेंगे तभी जग सुधरेगा...

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