मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

भारतीय सांस्कृतिक इतिहास व ..चतुर्युग ....डा श्याम गुप्त...

                    वस्तुतः सतयुग, त्रेता, द्वापर व कलियुग आदि चतुर्युगी --भारतीय संस्कृति  में ईश्वरप्राप्ति , पूजा, अर्चना के भावों के  साध्य के क्रमिक इतिहास हैं | जो ज्ञान, भक्ति व कर्म ...इन तीन विधियों के मानव के धरम -व्यवहार के प्रयोग के इतिहास हैं |
           सतयुग में ---मूलतः ज्ञान ही सत्य का अधर होता था ---ही ईश्वर प्राप्ति, पूजा , धर्म, नीति व  व्यवहार हुआ करता था | असत्याचरण  प्राय:  नहीं होता था | अतः ज्ञान, भक्ति, कर्म तीनों ही विधियां अपने चरम पर  मानी थीं | लोग सहज-सरल थे |
           त्रेता युग में--- भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ,  ज्ञान व भक्ति  ..सत्य का आधार बने |  ...मूलतः ज्ञान व भक्ति...मानव अर्चना, पूजा, व ईश्वर प्राप्ति का साधन थी | भक्ति भावना प्रधान थी एवं सभी कृतित्वों व व्यवहार में परिलक्षित होती थी |
           द्वापर युग में ---कर्म भाव का अधिक प्रचलन हुआ... ज्ञान, व भक्ति के साथ साथ कर्म पर अधिक जोर दिया जाने लगा, ईश्वर प्राप्ति, पूजा ,अर्चना आदि पर भी कर्म-भाव का प्रभाव रहने लगा| सत्य का आधार -ज्ञान व भक्ति के साथ कर्म  पर अधिक था |असत्याचरण काफी बढ़ने लगा |      
           कलियुग --में तीनों भावों की महत्ता कम होती गयी, सिर्फ नाम-जप ही ईश्वर साधना, पूजा, अर्चना का आधार रहगया | ज्ञान, भक्ति व कर्म ...तीनों ही सिर्फ नाम -जप ...अर्थात प्रतीक रूप में ही रहते हैं | सत्याचरण नाम मात्र को रह जाने से ...ज्ञान, भक्ति व कर्म सभी में असत्याचरण का बोलबाला है | लाउडस्पीकर से भजन, संगीत, प्रार्थना , खेमे लगाकर लीलाएं , मूर्तियाँ स्थापना आदि जोर शोर से राजनैतिक -संरक्षण में धार्मिक उत्सव आदि इसी प्रभाव वश हैं |

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