------ प्रेम के विभिन्न भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत चतुर्थ -सुमनांजलि- प्रकृति - में प्रकृति में उपस्थित प्रेम के विविध उपादानों के बारे में, नौ विभिन्न अतुकान्त गीतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो हैं--भ्रमर गीत, दीपक-राग, चन्दा-चकोर, मयूर-नृत्य , कुमुदिनी, सरिता-संगीत, चातक-विरहा, वीणा-सारंग व शुक-सारिका... । प्रस्तुत है पंचम गीत----कुमुदिनी -----
कुमुदिनी !
तुम क्यों खिलखिलाती हो ?
हरषाती हो,
मुस्काती हो
चाँद को दूर से देखकर ही ,
खिल जाती हो |
उसकी प्रतिच्छाया से मिलकर ही-
बहल जाती हो ||
कुमुदिनी ने
शर्माते हुए बताया |
यह जग ही परम तत्व की-
छाया है ,माया है |
भाव में ही सत्य समाता है,
भावना से ही प्रेम-गाथा है |
भाव ही से तो -
प्रेमी, प्रेमिका में समाया है ;
वही भाव मैंने ,
मन में जगाया है |
मैंने मन में चाँद को पाया है,
तभी तो यह ,
मन-कुसुम खिलखिलाया है ||
2 टिप्पणियाँ:
प्रेम ही जीवन का सार है.
achchhi rachna.
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