मंगलवार, 10 मई 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य-- गीत--कुमुदिनी--.(-सुमनान्जलि-४.--प्रक्रिति ..).-- डा श्याम गुप्त



  ------ प्रेम के विभिन्न  भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत  चतुर्थ -सुमनांजलि- प्रकृति - में प्रकृति में उपस्थित प्रेम के विविध उपादानों के बारे में,  नौ विभिन्न अतुकान्त गीतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो हैं--भ्रमर गीत, दीपक-राग, चन्दा-चकोर, मयूर-नृत्य , कुमुदिनी, सरिता-संगीत, चातक-विरहा, वीणा-सारंग व शुक-सारिका... । प्रस्तुत है पंचम  गीत----कुमुदिनी -----
 
 
 
कुमुदिनी !
तुम क्यों खिलखिलाती हो ?
हरषाती हो,
मुस्काती हो 
चाँद को दूर से देखकर ही  ,
खिल  जाती हो |
उसकी प्रतिच्छाया से मिलकर ही-
बहल जाती हो  ||

कुमुदिनी  ने 
शर्माते हुए बताया |
यह जग ही परम तत्व की-
छाया है ,माया है |
भाव में ही सत्य समाता है,
भावना से ही प्रेम-गाथा है  |
भाव ही से तो -
प्रेमी, प्रेमिका में समाया है ;
वही भाव मैंने ,
मन में जगाया है |
मैंने मन में चाँद को पाया है,
तभी तो यह ,
मन-कुसुम खिलखिलाया है  ||
 


2 टिप्पणियाँ:

हरीश सिंह ने कहा…

प्रेम ही जीवन का सार है.

हरीश सिंह ने कहा…

achchhi rachna.

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