सब्जी के ठेले पर लौकी का भाव २५ रू. किलो सुनते ही ६० साल की बुढ़िया बड़बड़ाई बेड़ा गर्क हो रोगहा रामदेव बाबा के मेरी पत्नी ने पूछा क्या हुआ माई क्यो इतने अच्छे संत को गालिया दे रही हो बौढ़िया ने जवाब दिया हम गरीब मन के जीना दूभर कर दे हे लौकी का भाव सुना नही केवल लौकी खरीदना हम गरीबो की औकात मे था उसका भाव भी आसमान मे पहुंचा दिया । पत्नी ने कहा अम्मा वो तो जिसको हार्ट की बीमारी होती है उनकी जान बचाने के लिये बाबा ने इलाज बताया है ।बु्ढ़िया ने तपाक से कहा काम धाम कुछ करना नही है दिन भर घर मे बैठ के टी वी देखना है बीमारी नई होही तो का होही हमन दिन भर पसीना बहाथन और शाम के खाना खाय बर सब्जी के एक दाना नई ले सकन हमन ला बिमारी काबर नही होथे । और तुमर असन बाई मन पेट चिराय बिना बच्चा तक तो जन नई सको । मेरे चेहरे पे छाई मुस्कान को देखकर पत्नी ने डपटा दांत मत निपोरो तुम भी तो दिन भर आफ़िस मे कुर्सी तोड़ते हो मैने विरोध स्वरूप कहा सुबह फ़ुटबाल खेलने जाता हूं वो इस पर पत्नी ने पलट वार किया वो तो तुम बच्चो को तैयार कर स्कूल छोड़ने से बचने के लिये करते हो ।
अब बुढिया ने मुझे आड़े हाथो लिया फ़ुटबाल खेलने मे का होशियारी है रे बाबू मैने जवाब दिया इसमे योगा और अन्य व्यायाम के तरीको से बेहतर तरीके से बीमारियो से बचाव होता है । बुढ़िया ने कहा और उगता क्या हैं क्या पैदा होता है । मै हड़बड़ाया अरे ये सब पैदा करने के लिये थॊड़ी न होता है ये तो बचाव के लिये होता है । बुढ़िया ने कहा तो ऐसा काम क्यो नही करते जिससे बचाव भी हो और कुछ पैदा भी हो क्यो नही घर मे सब्जियां उगाने मे मेहनत करते हो । मेरी पत्नी ने कहा हम खेती के लिये जमीन कहा से लाये अम्मा , बुढ़िया ने कहा अरे बेटा घर मे छत तो होगी उसी मे गमले रखकर क्यो नही सब्जियां उगा लेते हो घर ठंडा भी रहेगा । पर तुम लोगो को तो फ़ूल उगाना है और वो कटियल कैक्टसवा भी ,भाजी भिंडी का पेड़ या लौकी करेले की बेल लगाने मे तो तुम्हारी इज्जत कम हो जायेगी ।
हां बीमारी से बचने के लिये हम गरीबो का जीना मुश्किल करने मे तुम लोगो को कोई तकलीफ़ नही है लौकी लोगे भी तो रस निकाल कर बाकी को फ़ेक दोगे । अब तक आसपास भीड़ लग चुकी थी फ़जीहत से बचने का कोई रास्ता न देख मैने बात बाबा रामदेव की ओर मोड़ी -" पर इन सब मे बाबा का क्या दोष उसके लिये तो सब लोग समान है क्या अमीर क्या गरीब "। मुझ बुढ़िया को सिखा रहे हो बेटा बिना हजारो की टिकट के उसके शिविर मे कोई जा सकता है क्या । मेरे बेटे ने शिविर के बाहर जूस का ठेला लगाया था बाबा से आधी कीमत पर जूस बेच रहा था हटवा दिया उसको कमाई मारी जा रही थी न सत्यानाशी की । मैने धीरे से पत्नी को इशारा किया और हम दोनो बुढ़िया के यक्ष प्रश्नो से दूर घर की ओर भाग लिये ।
17 टिप्पणियाँ:
क्या बात है जबाब नहीं आपका, एक सोचनीय विषय को भी व्यंग के माध्यम से रखने में माहिर हैं.
बेहतरीन व्यंग्य।
पढ रहे हो ना बाबा रामदेव।
सब अपने अपने फंदे हैं भैया. जय हो बाबा रामदेव की, कही मेरे पीछे मत पड़ जाईयेगा.
अच्छा व्यंग
बेहतरीन व्यंग बाबाओं के पोल भी खुल गये।
इस बुढ़िया को अगर दिल की बीमारी हो जाए तो फिर पूछना। ऑपरेशन करवाएगी या लौकी का जूस पीना पसंद करेगी। बड़ी बीमारी का छोटा इलाज आप लोगों के गले नहीं उतर रहा न? खैर, आप लोग भी अच्छे व्यंग्यकार हैं। व्यंग्य किसी ऐसी व्यवस्था पर हो, जिससे लोगों को फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो तो सार्थक है। अगर आप हंसाने भर के लिए ऐसा कहते या लिखते हैं तो उसका भाव दूसरा होना चाहिए।
रामदेव के साप्ताहिक कैंप के लिए अगर हजार रुपए लिए जाते हैं तो इसमें क्या खराबी है। डॉक्टर को एक बार नब्ज दिखाने के लिए भी 100-200 रुपए देते ही हैं हम लोग।
धन्यवाद
क्या बात है मलखान जी..सही कहा..सिर्फ़ कागज़ घिसने से क्या होता है...हम छोटे-मोटे लाभ में ही तो लगे रहते हैं....ये रोज रोज सडकों पर पेड लगाना... गरीब की रोटी के लिये पान-मसाला बिकने देना-फ़ुटपाथ पाथ का घिरे रखना....शराब से आय न खत्म हो अतः शराव पर रोक न लगना...
आदरणीय मलखान जी जब पाठक व्यंग पाठक को समझ मे न आये तो दोष लेखक का ही होता है या हो सकता है संत से व्यापारी से नेता का रूप धारण कर रहे बाबा की ओर मेरी लेखनी ज्यादा ही मुड़ गयी या शायद शब्दो का चयन ही गलत हो गया मुझसे ।
बेहतरीन व्यंग्य है
sahi kaha
आप को क्या बाबा रामदेव की सुपारी दे है किसी ने ....जब देखो तब उनके पीछे पड़ें रहते है श्रीमान ..
शायद आप को शरद पवार कलमाड़ी और सोनिया मायनो गाँधी के सेकुलर भारत से ज्यादा प्यार है..
बहुत ही सार्थक व्यंग......
मलखान सिंह जी के विचारों से पूरी तरह सहमत! किंतु व्यंग करते समय कृपया व्यक्ति विशेष की प्रतिष्ठा का भी ख्याल रखें.
महर्षि दयानंद के बाद क्या कोई ऐसा संत हुआ है जिसने समाज विरोधी बातों को इतनी बेबाकी से बिना किसी भय के समाज के सामने रखा हो? इतिहास साक्षी है ऐसे महापुरुषों का सदा विरोध ही हुआ है.
badiya vyang...
बहुत ही प्यारा व्यंग्य
वाह, सराहनीय
शानदार व्यंग्य वास्तव में आधुनिकता के चक्कर में किचन गार्डन तो छोट ही गए हैं
Arunesh Bhai,
जल्दी ही हमारे ब्लॉग की रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित हो रहा है.
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अपनी टिपण्णी से हमारा मार्गदर्शन कीजिये.
जन सुनवाई
jansunwai@in.com
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