राधा-चरित्र का वर्णन श्रीमदभागवत पुराण में स्पष्ट नहीं मिलता; वेद, उपनिषद में भी राधा का उल्लेख नहीं है। राधा व राधा कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ’गीत-गोविन्द’ से मिलता है। वस्तुतः राधा का क्या अर्थ है, राधा शब्द कीव्युत्पत्ति कहां से,कैसे हुई ?’
सर्व प्रथम ऋग्वेद के भाग १/मंडल१-२ में-राधस शब्द का प्रयोग हुआ है,जिसको ’बैभवके अर्थ में प्रयोग कियागया है। रिग्वेद-२/३-४-५- में-’ सुराधा’ शब्द श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। सभी देवों से उनकीसंरक्षक शक्ति का उपयोग कर धनों की प्रार्थना , प्राक्रतिक साधनों का उचित उपयोग की प्रार्थना की गई है। रिग्वेद-५/५२/४०९४ में ’ राधो’ व ’आराधना’ शब्द शोधकार्यों के लिये भी प्रयोग किये गये हैं,यथा-- "यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्व्यं म्रजे॥" अर्थात यमुना के किनारे गाय,घोडों आदि धनों का वर्धन(व्रद्धि व उत्पादन) आराधना सहित करें।
वस्तुतः ऋग्वेद , यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति =रयि(संसार, ऐश्वर्य,श्री,वैभव) +धा( धारक,धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान-मार्गीकाल में स्रष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा, रूप वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चित-शक्ति,ह्लादिनी शक्ति,परमेश्वरी(राधा) का आविर्भाव हुआ ;भविष्य पुराण में--जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा तो उनकी मूलकृतित्व-काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए--काल रूप कृष्ण व उनकी सहोदरी(भगिनी-साथ-साथउदभूत) राधा परमेश्वरी; कर्म रूप ब्रह्मा व नियति(सहोदरी); धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा(सहोदरी) एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ।----इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी , चिच्छित-शक्ति(ब्रह्म संहिता) है।वही परवर्ती साहित्य में श्री कृष्ण का लीला-रमण,व लोकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी,प्रेमिका,पत्नीहुई, व ब्रज बासिनी रूप में जन-नेत्री।
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए 'वृषभानु पत्नी' शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराणने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी किम्बदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा ब्रिष्भानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली। शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं |
वस्तुतः ऋग्वेद , यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति =रयि(संसार, ऐश्वर्य,श्री,वैभव) +धा( धारक,धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान-मार्गीकाल में स्रष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा, रूप वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चित-शक्ति,ह्लादिनी शक्ति,परमेश्वरी(राधा) का आविर्भाव हुआ ;भविष्य पुराण में--जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा तो उनकी मूलकृतित्व-काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए--काल रूप कृष्ण व उनकी सहोदरी(भगिनी-साथ-साथउदभूत) राधा परमेश्वरी; कर्म रूप ब्रह्मा व नियति(सहोदरी); धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा(सहोदरी) एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ।----इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी , चिच्छित-शक्ति(ब्रह्म संहिता) है।वही परवर्ती साहित्य में श्री कृष्ण का लीला-रमण,व लोकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी,प्रेमिका,पत्नीहुई, व ब्रज बासिनी रूप में जन-नेत्री।
भागवत पुराण में-एक अराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है, किसी एक प्रिय गोपी को भग्वान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे ,जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता , विद्यापति,व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्री कृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) रूप में कल्पित व प्रतिष्ठित किया। वस्तुतः गीत गोविन्द व भक्ति काल के समय स्त्रियों के सामाज़िक(१ से १० वीं शताब्दी) अधिकारों में कटौती होचुकी थी, उनकी स्वतंत्रता ,स्वेच्छा, कामेच्छा अदि पर अंकुश था। अत राधा का चरित्र महिला उत्थान व उन्मुक्ति के लिये रचित हुआ। पुरुष-प्रधान समाज में कृष्ण उनके अपने हैं,जो उनकी उंगली पर नाचते है, स्त्रियों के प्रति जवाब देह हैं,नारी उन्मुक्ति ,उत्थान के देवता हैं। इस प्रकार बृन्दावन-अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री राधाजी का ब्रज में , जन-जन में, घर-घर में ,मन-मन में, विश्व में, जगत में प्राधान्य हुआ। वे मातृ-शक्ति हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा-सर्वदा संलग्न, उपस्थित, अभिन्न--परमात्म-अद्यात्म-शक्ति; अतः वे लौकिक-पत्नी नहीं होसकतीं, उन्हें बिछुडना ही होता है, गोलोक के नियमन के लिये ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण, या अयनघोष नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी।
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ की लट्ठामार होली सारी दुनियाँ में मशहूर है।
राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया। कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
4 टिप्पणियाँ:
इतनी विशद जानकारी देने के लिए आभार।
आपसे बहुत कुछ सिखने को मिलता है. आभार.
ऐतिहासिक रूप से राधा का जो प्रमाण मिलता हैँ वह रायण की पत्नी व श्रीकृष्ण की मामी का मिलता हैँ । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करेँ तो जो धारा के विपरीत अर्थात समुन्द्र से उद्गम की ओर गति करने की सामर्थ्य रखता होँ उसे राधा कहते हैँ । लेखक महोदय ने विमर्श के लिए एक सुन्दर विषय को चुना इसके लिए वह बधाई के पात्र हैँ ।
ऐतिहासिक रूप से राधा का जो प्रमाण मिलता हैँ वह रायण की पत्नी व श्रीकृष्ण की मामी का मिलता हैँ । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करेँ तो जो धारा के विपरीत अर्थात समुन्द्र से उद्गम की ओर गति करने की सामर्थ्य रखता होँ उसे राधा कहते हैँ । लेखक महोदय ने विमर्श के लिए एक सुन्दर विषय को चुना इसके लिए वह बधाई के पात्र हैँ ।
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