शुक्रवार, 25 मार्च 2011

चेतना, चिंतन और अंतःकरण चतुष्टय .....डा श्याम गुप्त का .आलेख



    चेतना, चिंतन और अन्तःकरण चतुष्टय व अध्यात्म वृत्तियों का महत्त्व........

             सार्वभौम सत्ता परब्रह्म--- परा व अपरा सत्ताओं में स्वयं को व्यक्त करती है। अपरा अर्थात प्रकृति या माया से समस्त तत्वों का निर्माण होता है जिससे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति होती है। परा, पुरुष या चेतन -स्वयं को प्रत्येक तत्त्व में चेतन रूप में स्थापित करता है तभी तत्व क्रिया योग्य होता है एवम निर्जीव सृष्टि से मानव तक का विकास क्रम बनता है।सृष्टि महाकाव्य में कवि वर्णन करता है---
"शक्ति और इन भूत कणों के ,
संयोजन से बने जगत के,
सब पदार्थ और उनमें चेतन,
देव रूप में निहित होगया;
भाव तत्व बन,बनी भूमिका-
त्रिआयामी सृष्टि कणों की।।" ......अशांति खंड से ( सृष्टि महाकाव्य )
             अतः निर्जीव व जीव प्रत्येक पदार्थ में चेतन सत्ता( जिसे वस्तु का अभिमानी देव,स्वत्व या आत्म कहते हैं ) विद्यमान होती है। बस उसका स्तर भिन्न भिन्न होता है । ब्रह्माण्ड, ब्रह्म की चेतना का अपार भण्डार है।
चेतना के चार स्तर होते हैं -- आत्म चेतना,अचेतन, अवचेतन ,चेतन। निर्जीव पदार्थों में चेतना सिर्फ आत्म स्तर तक होती है अतः वे शीत, गर्मी आदि के अनुभव पर प्रतिक्रया व्यक्त नहीं करते वनस्पतियों में अचेतन तक दो अवस्थाएं होने वे प्राणियों के भावों को नहीं समझ पाते एवं सिर्फ जीवन क्रियाएं व गति तक सीमित रहते हैं । पशु पक्षियों में अवचेतन सहित तीन स्तरों तक चेतना होती है परन्तु चेतन स्तर न होने से चिंतन की चेतना नहीं होती। मानव में चेतना के चारों स्तर होने से वह चिंतन प्रधान प्राणी व सृष्टि में ईश्वर या विकास की सर्वश्रेष्ठ कृति है।
             मानव में चिंतन --जाग्रति व सुषुप्ति , दोनों अवस्थाओं में चलता रहता है। सुचिन्तन से नए-नए विचार व परमार्थ चिंतन से उत्तरोत्तर प्रगति व विकास की प्रक्रिया बनती है। परन्तु वही चिंतन यदि ,तनाव पूर्ण स्थिति में हो व स्वार्थ चिंतन हो वह चिंता में परिवर्तित होजाता है, जो शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता का व जीव के नाश का कारण बनता है। इसीलिये चिंता को चिता सामान कहागया है।
मानवी अन्तः करण को चेतन प्रधान होने के कारण चित या चित्त, सूक्ष्म शरीर व स्व ( सेल्फ) भी कहा जाता है। इसी को व्यक्ति की मानसिक क्षमता भी कहते हैं। मन, बुद्धि, अहं -इसकी वृत्तियाँ हैं । इन चारों को सम्मिलित रूप में अन्तः करण चतुष्टय कहा जाता है, जो मानव शरीर में चेतना की क्रिया पद्धति है। किसी कार्य को किया जाय या नहीं ,यह निर्धारण प्रक्रिया चेतना की क्रमशः मन, बुद्धि, चित, अहं की क्रिया विधियों से गुजरकर ही परिपाक होती है।
          मन--की प्रवृत्ति सुख की उपलब्धि व दुःख की निवृत्तिमय होती है। मन , आकर्षण व भय के मध्य ,अन्तःवर्ती इच्छाओं , सरस अनुभूतियों व ज्ञान की परिधि के भीतर रहकर किसी कार्य के पक्ष या विपक्ष में विभिन्न कल्पनाओं द्वारा , संकल्पों व विकल्पों की एक तस्वीर प्रस्तुत करता है, ताकि चेतना का अगला चरण बुद्धि उचित निर्णय ले सके।
मन के तीन स्तर होते हैं--चेतन, अवचेतन, अचेतन | चेतन स्तर की क्रियाएं अहं भाव से युक्त व मानसिक क्षमता का १०% होती हैं। अवचेतन व अचेतन स्तर में अहं भाव लुप्त रहता है एवं इसकी क्षमता असीमित होती है। जब मन शुद्ध व निर्मल होकर चेतना के उच्चतम शिखर पर पहुंचता है तो वहआत्म-साक्षात्कार, ईश्वर प्राप्ति व समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर पाता है। कुछ लोग ( यथा-महर्षि अरविंद ) इसे अति चेतना का स्तर भी कहते हैं। मन अपने तीन गुणों -सत्व, तम, रज एवं पांच अवस्थाओं --सुषुप्ति, जागृत, एकाग्र,तमोगुनात्मक एवं विक्षिप्ति -के अनुसार चेतना के स्तर के समन्वय से किसी कार्य का संकल्प या विकल्प बुद्धि के सम्मुख प्रस्तुत करता है।
        बुद्धि---मन के द्वारा सुझाए गए संकल्पों व विकल्पों का उचित मूल्यांकन करके उचित, उपयोगी व ग्राह्य का निर्णय करती है, जो बुद्धि के पांच स्तरों के अनुरूप होते हैं --१. साधारण--सामान्य ज्ञान जो पशु-पक्षियों में होता है। २.सुधी-पशु-पक्षी से ऊपर विचार शीलता जो सभी मानवों में होती है। ३. मेधा --विद्वता, संकल्पशीलता,उच्चा वचार, सद-विचार , धर्म-कर्म व परमार्थ भाव सम्पन्न करने वालों की बुद्धि | ४. प्रज्ञा -हानि-लाभ में सामान रहने वाले भाव -युत ,समत्व भाव से युक्त बुद्धि | ५.- ऋतंभरा ( धी )--जिसमे मात्र औचित्य व आदर्श ही प्रधान रहता है; समाधि अवस्था, विदेह,कैवल्य या ब्रह्मानंद अवस्था ।
          चित या चित्त---आत्मा का वह स्वरुप है जिसका मुख्य स्वरुप स्मृति व धारणा है। बुद्धि द्वारा उचित ठहराए जाने पर भी वह कार्य क्रिया रूप में परिणत नहीं होता | विचार को प्रयास में परिणत चित्त करता है। विभिन्न विचारों व कार्यों को चिरकाल तक करते रहने के फलस्वरूप उनके समन्वय से जो स्वभाव , भले-बुरे संस्कार ,आदतें , धारणाएं बनती हैं उन्हीं की स्मृति के अनुरूप बुद्धि द्वारा दिए गए निर्णय को चित्त प्रयास में परिणत करता है | यही चित्त स्वायत्तशासी संस्थानों ( ओटोनौमस बोडी सिस्टम्स ) काया संचालन व आतंरिक क्रियाएं --ह्रदय, आंत्र,रक्त-संचार, श्वशन आदि का संचालन करता है जो अचेतन स्तर पर होता है। योग व हठयोग में इन्ही वृत्तियों का निरोध किया जाता है।
         अहं ---चेतना की इस पर्त में स्वयं के सम्बन्ध में मान्यताएं व धारणाये स्थित होती हैं। आत्म-अस्तित्व , ईगो ,अपना दृष्टिकोण , स्व-सत्ता की अनुभूति व व्यक्तित्व इसी को कहते हैं। आस्था व निष्ठा का यही क्षेत्र है। विभिन्न इच्छाएं ,ज्ञान , अभ्यास व वातावरण आदि के कारण जीवात्मा के ऊपर जो आवरण चढ़ा होता है वह यही अहं है। यह चित्त की धारणाओं व निर्णयों को भी प्रभावित करता है। यह अहं अथवा आत्म बोध , अन्तः करण का प्रतिरक्षा तंत्र है जो आतंरिक द्वंद्वों को अवचेतन स्तर पर भांपकर उस कार्य से ( चाहे चित्त ने मान्यता दे दी हो) पलायन, दमन, शमन ,युक्तिकरण,रूपांतरण , उन्नयन, अवतरण या तादाम्यीकरण द्वारा प्रतिरक्षा के उपाय करता है, तथा अंतर्द्वंद्वों का निरोध कर लेता है। कुंठा, असफलता के कारण -बहाने बनाना , झूठ बोलना, शेखी बघारना, विभिन्न मनोरोग अदि इसी अहं के निर्बल होने से होती हैं। स्वभावगत शौर्यता, खतरा उठाने की क्षमता, सरलता, सज्जनता आदीं इसी अहं के सुद्रड होने के चिन्ह हैं। सन्क्षेप में चेतना की प्रतिक्रियाओं का बाह्य प्रतिफलन रूप जो व्यक्तित्व को विखंडित होने से बचाती है अहं है। जिसका कार्य रूप में प्रतिफलन , सुद्रडता या दुर्बलता के कारण , अकर्म, दुष्कर्म या सत्कर्म कुछ भी होसकता हो।  योग आदि द्वारा सुद्रड़ व निर्मल अहं में कुसंस्कारों का उन्मूलन व सुसंस्कारों का प्रतिष्ठापन श्रृद्धा, भक्ति आदि भावों के संचार किये जा सकते हैं। भक्ति द्वारा ईश्वर को आत्म समर्पण में इसी अहं को नष्ट किया जाता है। ईश्वर चिंतन व अध्यात्म, आत्म-ज्ञान द्वारा इसी अहं को सुद्रड़, सन्तुष्ट व सुकृत किया जाता है।
                अंतःकरण के इन चारों स्तरों से छन कर ही मानव के विचार कार्य रूप में परिणत होते हैं| ईश्वर,ज्ञान, योग, भक्ति, परहित चिंतन आदि का उद्देश्य चेतना के प्रत्येक स्तर को सुद्रिड, सबल , निर्मल व अमल बनाकर अहं को नियमित करना है ,ताकि कर्म का प्रतिफलन सुकर्म के रूप में ही प्रवाहित व प्रस्फुटित हो, और मानव का उत्तरोत्तर विकास हो | यही अध्यात्म वृत्तियों की महत्ता है।

5 टिप्पणियाँ:

Anita ने कहा…

इतना सुंदर लेख पढ़ा नहीं जा सका क्योंकि हिन्दीफोन्ट के साथ साथ कुछ अपठनीय चिन्ह दिखाई दे रहे हैं कृपया पुनः प्रकाशित करें.

हरीश सिंह ने कहा…

ज्ञानवर्धक लेख.

shyam gupta ने कहा…

अनिता जी, इसमें तो कोई अपठनीय चिन्ह नहीं दिख रहे हैं--क्रपया अपना कम्प्यूटर चेक करें...

shyam gupta ने कहा…

या---
मेरे दूसरे ब्लोग---http://विजानाति-विजानाति-विग्यान.blogspot.com पर यह आलेख...मई-१० में देखें...

shyam gupta ने कहा…

और टिप्पणी अवश्य करें....

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