होली के दिन उल्लास, खुशियां, रंगों के सैलाब से दुनिया ही सराबोर नहीं होती है वरन प्रकृति भी इस उल्लास में उसकी बराबर की साझेदार होती है। इसीलिए होली को वसंतोत्सव भी कहते है। जिधर भी नजर जाती है प्रकृति अपनी अनूठी अदा से सजी संवरी नजर आती है। सब कुछ इतना सम्मोहक कि आप पलक झपकाना भी भूल जाएं। बहुत पीछे नहीं बस थोड़ा पलट कर देखिए जब होली और प्रकृति के मध्य एक अटूट रिश्ता था। जिन रंगों का प्रयोग हम अपनी खुशियों को व्यक्त करने के लिए करते थे, वे सभी फूलों, पत्तियों, फलों से बनते थे। जो जीवन में सिर्फ खुशियां भरते थे, उसे नुकसान नहीं पहुँचाते थे उन रसायनिक रंगों की तरह, जो आज हम प्रयोग करते हैं।
कहते हैं कि हम उन्नति की डगर में बहुत आगे बढ़ गए हैं...पर क्या आप इसे आगे बढ़ना कहेंगे, जब कंक्रीट के जंगल में हम हरीतिमा खो रहे हैं। चार पैसों के लालच में रंगों के रूप में बीमारियां बेच रहे है..होलिकादहन के नाम पर हरे पेड़ काट रहे हैं और फिर कह रहे हैं - बुरा न मानो होली है। होलिका दहन की परम्परा तो सदियों पुरानी है, पर हरे पेड़ काट कर होलिका दहन की परम्परा ज्यादा पुरानी नहीं है। पहले होलिका दहन के लिए पेड़ों की सूखी टहनियां इकट्ठी की जाती थी। मजाक मस्ती भी होती थी और उस मजाक मस्ती में बच्चों और युवाओं की टोली चंदा एकत्र करने घर-घर जाती थी और चंदा न देने वालों के घरों के पुराने फर्नीचर कई बार होलिका की नजर चढ़ जाते थे। लोग गुस्सा दिखाते थे पर बुरा नहीं मानते थे क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा करने के पीछे किसी की कोई दुर्भावना नहीं है। महज उत्साह है।
पर अब स्थितियां बदल गई हैं। सोच बदल गए हैं और बदल गए हैं त्योहार मनाने के तरीके। सब कुछ मैकेनिकल हो गया है। पहले जिस त्योहार को मनाने के लिए हफ्तों पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थीं, आज उस त्योहार को मनाने से हफ्तों पहले से स्वयंसेवी संगठन, डॉक्टर और स्थानीय प्रशासन चेतावनी जारी करने लगता है। लोगों को बताया जाने लगता है कि ऑयल पेन्ट, पेट्रोल, कीचड़ और अन्य रसायन अधारित उत्पादों का होली के दौरान प्रयोग न करें। ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है साथ ही पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाते हैं। इन रसायनिक उत्पादों से बने रंगों को त्वचा से छुड़ाना मुश्किल होता है तथा इसे त्वचा को नुकसान भी पहुँचता है। स्थानीय प्रशासन पानी से भरे गुब्बारों के प्रयोग को प्रतिबंधित कर देते है और उपयोग करते हुए पकड़े जाने पर सजा देने की बात भी की जाती है। यह भी कहा जाता है कि सूखे रंगों से होली खेलें जिससे पानी का इस्तेमाल सीमित किया जा सके ताकि समाज के सभी तबको को पानी का समान्य वितरण किया जा सके। पर ऐसा होता नहीं है। सब कुछ रस्म अदायगी जैसा लगता है। मानो कहना उनका कर्तव्य है और अवहेलना करना हमारा।
अगर हम अपने को विकसित समाज कहते हैं तो हमें अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा। बदलती परिस्थितियों के अनुसार खुद को बदलना होगा। इको फ्रैंडली होली कोई नया विचार नहीं है। यह तो सदियों पुराना विचार है जो आधुनिकता की दौड़ में गुम हो गया है। आइए एक दिन के लिए ही सही अपने चेहरों पर चढ़े मुखौटों को उतार फेकें और उस दुनिया में लौट चलें जहां गुलाल से आकाश लाल हो, ढोलक की थाप हो, जीवन में राग हो, कोयल की कूक हो, दिल में उल्लास हो, प्यार की उमंग हो, भंग की तरंग हो, रंग की बहार हो, मस्ती की चाल, जीवन समान हो, एक ही जुबान हो......
आप सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
-प्रतिभा वाजपेयी.
शनिवार, 19 मार्च 2011
रंगों का श्रृंगार होली
3/19/2011 09:37:00 am
pratibha
4 comments
4 टिप्पणियाँ:
सही लिखा है आपने पर बंदिश में त्यौहार का मजा नहीं आता है
कमेन्ट में लिंक कैसे जोड़ें?
निश्चित रूप से सत्य लिखा है अपने | पेंट, तैल, इत्यादि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाना आवश्यक है| उससे भी ज़रूरी है उन वर्णों का प्रयोग करना जो प्रकृति के किसी भी तत्तव को हानि ना पहुँचा पायें | गुलाल, हल्दी, आल्ता इत्यादि ही पुरातन समय उपयोग किए जाते थे | इन पदार्थों का प्रचार करना अत्यावश्यक है |
योगेनेद्रजी बंदिश कैसी? हम तो कह रहे हैं कि पूरे जोशो-खरोश से होली मनाइए. बस पेन्ट और कीचड़ से परहेज कर लें, तो अच्छा रहेगा। अब आप ही बताइए कोई आपके चेहरे पर पेन्ट लगा दे तो आपको गुस्सा नहीं आएगा। सोच कर देखिए...
होली मुबारक हो।
होली की बहुत -बहुत शुभकामनाये
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