मंगलवार, 8 मार्च 2011

रफी की संगीत यात्रा- चाहूंगा मैं तुझे.......


मंगल यादव,नोएडा

सुरीली आवाज के बादशाह मोहम्मद रफी का जन्म सुन्नी परिवार में 24 दिसम्बर 1924 को अमृतसर तहसील के कोटला-सुल्तानसिंह (अब पाक) में हुआ था। इनके पिता जी का नाम हाजी अली मोहम्मद और माता का नाम अल्लारुखी था। इनके भाई मोहम्मद दीन थे जो हजामत की दुकान चलाते थे।

रफी साहब बचपन से ही गीत-संगीत के बड़े शौकीन थे। सात साल की उम्र में उन्हें एक फकीर के साथ एकतारा बजाकर गाते देखा गया था। यह बात जब उनके पिता जी को पता चली तो उन्हें घर पर काफी डांट मिली। उनके बारे में अक्कर कहा जाता है उस फकीर ने रफी साहब को आगे चलकर खूब नाम कमाने का आर्शीवाद था जो अक्षरतः सच साबित हुई।

सन् 1935 में रफी के पिता रोजगार के सिलसिले मे लाहौर चले गये और कुछ दिनों के बाद रफी औऱ बाकी उनका परिवार भी लाहौर चले गये। रफी साहब की प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर जाने से पूर्व गांव में ही हुई। रफी साहब 14 साल के उम्र में अपने पिता जी से गायक बनने की इच्छा जाहिर की थी लेकिन पिता जी नाच गाने से शख्त नफरत करते थे। रफी की प्रतिभा को निखारने में उनके बड़े भाई मोहम्मद दीन ने बहुत मदद की। उस समय के बड़े गायक उस्मान अब्दुल खान से रफी की मुलाकात उनके बड़े भाई ने ही करवाई । रफी साहब ने बाद में पंडित उस्ताद बड़े गुलाम अली खान से शास्त्रीय संगीत के गुर भी सीखे।

15 साल की उम्र में रफी साहब की मुलाकात उस समय के महसूर गायक और अभिनेता कुन्दल लाल सहगल से हुई। हुआ यूं कि एक दिन लाहौर के एक समारोह में सहगल साहब गाने वाले थे। संयोग से माइक खराब होने की वजह से लोगों ने शोर मचाना शुरु कर दिया। उसी समय मौका पाकर रफी के भाई ने व्यवस्थापक से भीड़ को शान्त करने के लिए रफी से गवाने का अनुरोध किया। आखिरकार मौका पाकर रफी साहब भीड़ को शान्त कर सहगल साहब का दिल जीत लिया।

बाद मे ऱफी को संगीतकार फीरोज निजामी के मार्गदर्शन में रेडियो लाहौर में गाने का मौका मिला। यहीं से रफी साहब प्रसिद्ध होने लगे। 1944 मे रफी ने पंजाबी फिल्म गुलबलोच के ‘सोनियेगी, हीरिएनी तेरी याद मे बहुत सताया ‘ गीत के साथ पार्श्व गायन की शुरुआत की।

इस पंजाबी गीत से लोकप्रियता मिलने के बाद हिन्दी फिल्म ‘गांव की गोरी ‘ मे गीत गाये जो उनकी पहली हिन्दी फिल्म थी। रफी ने अपने 35 के फिल्म संगीत के कैरियर में नौसाद, सचिन देव बर्मन, सी. रामचन्द्र, रोशन, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी नैयर, चित्र गुप्त, कल्याण जी-आन्नद जी, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, सलिल चैधरी, रबीन्द्र जैन, इकबाल कुरैसी, उषा खन्ना, रवि और राहुलदेव बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ काम किया।

गायन के विविध आयाम

करुण गायनः- 1948 में रिलीज हुई ” प्यार की जीत ” में रफी साहब की करुण शैली पूरी तरह से उभरकर सामने आयी है। इस फिल्म में ‘इक दिल के टुकड़े हजार हुए ‘ गाते समय आम आदमी की तरह रोने लगते हैं। फिल्म बड़ी बहन में रफी का गाया गीत ‘मुहब्बत के धोखे में कोई न आये ‘ युवा वर्ग के दिलों को छू लिया। करुण रस शैली की खास झलक ‘ओ रे दिल तुझी को नींद न आयी ‘ और ‘मुहब्बत में खुदा गुजरे ‘ में देखने को मिलती है।

दार्शनिक गीतः-

‘तेरा खिलौना टूटा बालक जैसा ‘ और फिल्म मेला में रफी का दार्शनिक रुप उभरकर सामने आता है। ‘ ये दिन्दगी के मेले, दुनिया में कम न होगे..। फिल्म दोस्ती में ‘ राही मनवा दुख की चिन्ता क्यों सताती है ‘ गीत दुखों पर मरहम लगाता है। फिल्म भाभी में ‘चल उड़ जा रे पंछी ‘ गीत में कितना गहरा अर्थ भरा है।

देश भक्ति गीत

रफी के देशभक्ति गीतों ने लोगों के मन में राष्ट्र प्रेम की भावना जगाने में खास भूमिका निभायी है। उन्होने फिल्म शहीद में पहला देशभक्ति गीत गाया। वतन की राह –(शहीद) अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। फिल्म झांसी की रानी में ‘अमर है झांसी की रानी’ विशेष उल्लेखनीय है। फिल्म बाजार में रफी के गाये गीत ‘शहीदों तुमको मेरा सलाम ‘ खूब धूम मचाई।

कौवाली

आवाज के जादूगर रफी साहब कौवाली भी गाये है। फिल्म बरसात की रात में मन्ना डे साथ ‘ये इश्क-इश्क है‘ और ‘ना तो कारवां की तलाश है ‘ फिल्म पालकी में मन्ना डे और आशा भोसले के साथ ‘मै इधर जाऊ या उधर जाऊ‘ हँसते जख्म में ‘ये माना मेरी जाँ‘ काफी लोकप्रिय हुए।

शास्त्रीय गायन

संगीत के हरफरमौला रफी शास्त्रीय संगीत में भी माहिर थे। गीत- मधुबन में राधिका, राग- हमीर, इंसाफ का मंदिर है में भैरवी राग, चौदवी का चांद हो में पहाड़ी राग , खेलत नंदलाल – काफी,दिल एक मंदिर है में जोगिया, जिन्दगी भर गम जुदाई में मालकोश राग खूब गाया जाता है।

रफी साहब ने न केवल हर वर्ग और हर कौम, हर आयु वर्ग बल्कि बच्चों के भी गीत गाये हैं। एक समय था जब ‘ चुन-चुन करती आयी चिड़िया ’ और ‘अब दिल्ली दूर नही ‘ रेडियो पर खूब बजते थे। रफी ने 40 के दशक में बच्चों के लिए सिर्फ एक गीत ‘तेरा खिलौना टूटा बालक‘ गाकर लोकप्रियता बटोर ली। रफी ने आशा भोसले के साथ ‘हम भी अगर बच्चे होते‘, और एक फूल दो माली में ‘ओ नन्हे से फरिश्ते ‘खूब सुर्खियां बटोरा।

आवाज के इस जादूगर की मृत्यु 31 जुलाई 1980 को हो गयी लेकिन रफी साहब आज भी अपने गीत के जरिये हमारे बीच मौजूद हैं। इन्हें 1965 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया। हम किसे से कम नही के लिए 1977 में राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। गीत- चौदवी का चांद हो (1960), तेरी प्यारी-प्यारी सूरत (1961), चाहूंगा मैं तुझे (1964), बहारों फूल बरसाओ (1966),
दिल के झरोखे में (1968) और क्या हुआ तेरा वादा को 1977 में फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।

2 टिप्पणियाँ:

तरुण भारतीय ने कहा…

रफ़ी जी एक उम्दा फनकार थे और अपनी आवाज के माध्यम से वो आज भी ज़िंदा हैं | हमारे इलाके में एक आकाशवाणी केन्द्र है उससे जब भी कोई कार्यक्रम रफ़ी जी पर प्रसारित होता तो हमारा पूरा परिवार सुनता है .. आपने रफ़ी जी पर बहुत ही शानदार पोस्ट लिखी है ...

हरीश सिंह ने कहा…

शानदार पोस्ट,अच्छी जानकारी.

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