रविवार, 6 मार्च 2011

मुस्लिम समाज में बहुएं जलाई नहीं जातीं। ‘बलात्कार और उसके बाद हत्या’ नहीं होती। लड़कियां अपने माता-पिता के सिर पर दहेज और ख़र्चीली शादी का पड़ा बोझ हटा देने के लिए आत्महत्या नहीं करती.


कन्या भ्रूण-हत्या
पाश्चात्य देशों की तरह, भारत भी नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से ग्रस्त है। उनमें सबसे दुखद ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमारे देश की ही ‘विशेषता’ है...उस देश की, जिसे एक धर्म प्रधान देश, अहिंसा व आध्यात्मिकता का प्रेमी देश और नारी-गौरव-गरिमा का देश होने पर गर्व है।

वैसे तो प्राचीन इतिहास में नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन में बहुत निचली श्रेणी पर भी रखी गई नज़र आती है, लेकिन ज्ञान-विज्ञान की उन्नति तथा सभ्यता-संस्कृति की प्रगति से परिस्थिति में कुछ सुधार अवश्य आया है, फिर भी अपमान, दुर्व्यवहार, अत्याचार और शोषण की कुछ नई व आधुनिक दुष्परंपराओं और कुप्रथाओं का प्रचलन हमारी संवेदनशीलता को खुलेआम चुनौती देने लगा है। साइंस व टेक्नॉलोजी ने कन्या-वध की सीमित समस्या को, अल्ट्रासाउंड तकनीक द्वारा भ्रूण-लिंग की जानकारी देकर, समाज में कन्या भ्रूण-हत्या को व्यापक बना दिया है। दुख की बात है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर सुखी-सम्पन्न वर्ग में यह अतिनिन्दनीय काम अपनी जड़ें तेज़ी से फैलाता जा रहा है

इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से कुछ चिंता व्यक्त की जाने लगी है। साइन बोर्ड बनाने से लेकर क़ानून बनाने तक, कुछ उपाय भी किए जाते रहे हैं। जहां तक क़ानून की बात है, विडम्बना यह है कि अपराध तीव्र गति से आगे-आगे चलते हैं और क़ानून धिमी चाल से काफ़ी दूरी पर, पीछे-पीछे। 

नारी-आन्दोलन (Feminist Movement) भी रह-रहकर कुछ चिंता प्रदर्शित करता रहता है, यद्यपि वह नाइट क्लब कल्चर, सौंदर्य-प्रतियोगिता कल्चर, कैटवाक कल्चर, पब कल्चर, कॉल गर्ल कल्चर, वैलेन्टाइन कल्चर आदि आधुनिकताओं (Modernism) तथा अत्याधुनिकताओं (Ultra-modernism) की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, विकास व उन्नति के लिए; मौलिक मानवाधिकार के हवाले से—जितना अधिक जोश, तत्परता व तन्मयता दिखाता है, उसकी तुलना में कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने में बहुत कम तत्पर रहता है

कुछ वर्ष पूर्व एक मुस्लिम सम्मेलन में (जिसका मूल-विषय ‘मानव-अधिकार’ था) एक अखिल भारतीय प्रसिद्ध व प्रमुख एन॰जी॰ओ॰ की एक राज्यीय (महिला) सचिव ने कहा था: ‘पुरुष-स्त्री अनुपात हमारे देश में बहुत बिगड़ चुका है (1000:840, से 1000:970 तक, लेकिन इसकी तुलना में मुस्लिम समाज में पुरुष-स्त्री अनुपात बहुत अच्छा, हर समाज से अच्छा है। मुस्लिम समाज से अनुरोध है कि वह इस विषय में हमारे समाज और देश का मार्गदर्शन और सहायता करें...।’

मेरी बेटी शिज़ा
उपरोक्त असंतुलित लिंग-अनुपात (Gender Ratio) के बारे में एक पहलू तो यह है कि कथित महिला की जैसी चिंता, हमारे समाजशास्त्री वर्ग के लोग आमतौर पर दर्शाते रहते हैं और दूसरा पहलू यह है कि जैसा कि उपरोक्त महिला ने ख़ासतौर पर ज़िक्र किया, हिन्दू समाज की तुलना में मुस्लिम समाज की स्थिति काफ़ी अच्छी है। इसके कारकों व कारणों की समझ भी तुलनात्मक विवेचन से ही आ सकती है। मुस्लिम समाज में बहुएं जलाई नहीं जातीं। ‘बलात्कार और उसके बाद हत्या’ नहीं होती। लड़कियां अपने माता-पिता के सिर पर दहेज और ख़र्चीली शादी का पड़ा बोझ हटा देने के लिए आत्महत्या नहीं करती। जिस पत्नी से निबाह न हो रहा हो उससे ‘छुटकारा’ पाने के लिए ‘हत्या’ की जगह पर ‘तलाक़’ का विकल्प है और इन सबके अतिरिक्त, कन्या भ्रूण-हत्या की लानत मुस्लिम समाज में नहीं है

मुस्लिम समाज यद्यपि भारतीय मूल से ही उपजा, इसी का एक अंग है, यहां की परंपराओं से सामीप्य और निरंतर मेल-जोल (Interaction) की स्थिति में वह यहां के बहुत सारे सामाजिक रीति-रिवाज से प्रभावित रहा तथा स्वयं को एक आदर्श इस्लामी समाज के रूप में पेश नहीं कर सका, बहुत सारी कमज़ोरियों उसमें भी घर कर गई हैं, फिर भी तुलनात्मक स्तर पर उसमें जो सद्गुण पाए जाते हैं, उनका कारण सिवाय इसके कुछ और नहीं हो सकता, न ही है, कि उसकी उठान एवं संरचना तथा उसकी संस्कृति को उत्कृष्ट बनाने में इस्लाम ने एक प्रभावशाली भूमिका अदा की है।

इस्लाम, 1400 वर्ष पूर्व जब अरब प्रायद्वीप (Arabian Penisula) के मरुस्थलीय क्षेत्र में एक असभ्य और अशिक्षित क़ौम के बीच आया, तो अनैतिकता, चरित्रहीनता, अत्याचार, अन्याय, नग्नता व अश्लीलता और नारी अपमान और कन्या-वध के बहुत से रूप समाज में मौजूद थे। इस्लाम के पैग़म्बर का ईश्वरीय मिशन, ऐसा कोई ‘समाज सुधर-मिशन’ न था जिसका प्रभाव जीवन के कुछ पहलुओं पर कुछ मुद्दत के लिए पड़ जाता और फिर पुरानी स्थिति वापस आ जाती। बल्कि आपका मिशन ‘सम्पूर्ण-परिवर्तन’, समग्र व स्थायी ‘क्रान्ति’ था, इसलिए आप (सल्ल॰) ने मानव-जीवन की समस्याओं को अलग-अलग हल करने का प्रयास नहीं किया बल्कि उस मूल-बिन्दु से काम शुरू किया जहां समस्याओं का आधार होता है। इस्लाम की दृष्टि में वह मूल बिन्दु समाज, क़ानून-व्यवस्था या प्रशासनिक व्यवस्था नहीं बल्कि स्वयं ‘मनुष्य’ है अर्थात् व्यक्ति का अंतःकरण, उसकी आत्मा, उसकी प्रकृति व मनोवृत्ति, उसका स्वभाव, उसकी चेतना, उसकी मान्यताएं व धारणाएं और उसकी सोच (Mindset) तथा उसकी मानसिकता व मनोप्रकृति (Psychology)।

इस्लाम की नीति यह है कि मनुष्य का सही और वास्तविक संबंध उसके रचयिता, स्वामी, प्रभु से जितना कमज़ोर होगा समाज उतना ही बिगाड़ का शिकार होगा। अतएव सबसे पहला क़दम इस्लाम ने यह उठाया कि इन्सान के अन्दर एकेश्वरवाद का विश्वास और पारलौकिक जीवन में अच्छे या बुरे कामों का तद्नुसार बदला (कर्मानुसार ‘स्वर्ग’ या ‘नरक’) पाने का विश्वास ख़ूब-ख़ूब मज़बूत कर दे। फिर अगला क़दम यह कि इसी विश्वास के माध्यम से मनुष्य, समाज व सामूहिक व्यवस्था में अच्छाइयों के उत्थान व स्थापना का, तथा बुराइयों के दमन व उन्मूलन का काम ले। इस्लाम की पूरी जीवन-व्यवस्था इसी सिद्धांत पर संरचित होती है और इसी के माध्यम से बदी व बुराई का निवारण भी होता है।

बेटियों की निर्मम हत्या की उपरोक्त कुप्रथा को ख़त्म करने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰द्) ने अभियान छेड़ने, भाषण देने, आन्दोलन चलाने, और ‘क़ानून-पुलिस-अदालत-जेल’ का प्रकरण बनाने के बजाय केवल इतना कहा कि ‘जिस व्यक्ति के तीन (या तीन से कम भी) बेटियां हों, वह उन्हें ज़िन्दा गाड़कर उनकी हत्या न कर दे, उन्हें सप्रेम व स्नेहपूर्वक पाले-पोसे, उन्हें (नेकी, शालीनता, सदाचरण व ईशपरायणता की) उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे, बेटों को उन पर प्रमुखता व वरीयता न दे, और अच्छा-सा (नेक) रिश्ता ढूंढ़कर उनका घर बसा दे, तो पारलौकिक जीवन में वह स्वर्ग में मेरे साथ रहेगा।’

‘परलोकवाद’ पर दृढ़ विश्वास वाले इन्सानों पर उपरोक्त संक्षिप्त-सी शिक्षा ने जादू का-सा असर किया। जिन लोगों के चेहरों पर बेटी पैदा होने की ख़बर सुनकर कलौंस छा जाया करती थी (क़ुरआन, 16:58) उनके चेहरे अब बेटी की पैदाइश पर, इस विश्वास से, खिल उठने लगे कि उन्हें स्वर्ग-प्राप्ति का एक साधन मिल गया है। फिर बेटी अभिशाप नहीं, वरदान, ख़ुदा की नेअमत, बरकत और सौभाग्यशाली मानी जाने लगी और समाज की, देखते-देखते काया पलट गई।

मनुष्य की कमज़ोरी है कि कभी कुछ काम लाभ की चाहत में करता है और कभी डर, भय से, और नुक़सान से बचने के लिए करता है। इन्सान के रचयिता ईश्वर से अच्छा, भला इस मानव-प्रकृति को और कौन जान सकता है? अतः इस पहलू से भी कन्या-वध करने वालों को अल्लाह (ईश्वर) ने चेतावनी दी। इस चेतावनी की शैली बड़ी अजीब है जिसमें अपराधी को नहीं, मारी गई बच्ची से संबोधन की बात क़ुरआन में आई हैः

और जब (अर्थात् परलोक में हिसाब-किताब, फ़ैसला और बदला मिलने के दिन) ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से (ईश्वर द्वारा) पूछा जाएगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी’ (81:8,9)।

इस वाक्य में, बेटियों को क़त्ल करने वालों को सख़्त-चेतावनी दी गई है और इसमें सर्वोच्च व सर्वसक्षम न्यायी ‘ईश्वर’ की अदालत से सख़्त सज़ा का फ़ैसला दिया जाना निहित है। एकेश्वरवाद की धारणा तथा उसके अंतर्गत परलोकवाद पर दृढ़ विश्वास का ही करिश्मा था कि मुस्लिम समाज से कन्या-वध की लानत जड़, बुनियाद से उखड़ गई 1400 वर्षों से यही धरणा, यही विश्वास मुस्लिम समाज में ख़ामोशी से अपना काम करता आ रहा है.

मेरी बेटी शिज़ा
आज भी, भारत में मुस्लिम समाज ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ की लानत से पाक, सर्वथा सुरक्षित है। देश को इस लानत से मुक्ति दिलाने के लिए इस्लाम के स्थाई एवं प्रभावकारी विकल्प से उसको लाभांवित कराना समय की एक बड़ी आवश्यकता है.

चलते चलते आपसे अपनी बेटी 'शिज़ा' तस्वीर आप लोगों को शेयर करने का जी चाह रहा है, इस पोस्ट में ऊपर की तरफ उसके पैदाईश के ऐन-वक़्त की फ़ोटो है और यहाँ जब वह छः-सात महीने की थी. अब तो वह माशा अल्लाह से 4 साल की हो चुकी है. बहुत हंसमुख है और बहुत ज्यादा बातूनी, ऐसा लोग कहते हैं.

-सलीम ख़ान 

9 टिप्पणियाँ:

Durga Datt Chaubey ने कहा…

माफ कीजिएगा लेकिन क्या इसी दृढ़ विश्वास ने एक ऐसा समुदाय बना दिया है जो अपनी परिभाषा की दुनिया बनाने के लिए हथियार का प्रयोग एवं विनाश की प्रक्रिया को अपने जीवन का हिस्सा बना चुका है?

shyam gupta ने कहा…

--- मूल बिन्दु समाज, क़ानून-व्यवस्था या प्रशासनिक व्यवस्था नहीं बल्कि स्वयं ‘मनुष्य’ है अर्थात् व्यक्ति का अंतःकरण, उसकी आत्मा, उसकी प्रकृति व मनोवृत्ति, उसका स्वभाव, उसकी चेतना, उसकी मान्यताएं व धारणाएं और उसकी सोच (Mindset) तथा उसकी मानसिकता व मनोप्रकृति (Psychology)।----यह तो हर धर्म का मूल है जी.....

---वे यदि अपनी नहीं तो अन्य धर्मों की स्त्रियों के साथ यह तो सब करते ही हैं...

हरीश सिंह ने कहा…

सलीम भाई ने एक गंभीर विषय की प्रस्तुति सुन्दर ढंग से की है, वास्तव में समाज में बढ़ रही कन्या भ्रूण हत्या के पीछे दहेज़ ही मूल कारण है. आज यदि बहुए जलाई जा रही है तो उसका कारण दहेज़ भी है. सलीम भाई ने एक सार्थक पोस्ट लिखी है. उन्होंने यह कहा की "
"मुस्लिम समाज में बहुएं जलाई नहीं जातीं। ‘बलात्कार और उसके बाद हत्या’ नहीं होती। लड़कियां अपने माता-पिता के सिर पर दहेज और ख़र्चीली शादी का पड़ा बोझ हटा देने के लिए आत्महत्या नहीं करती."
इस पोस्ट में उन्होंने यह नहीं कहा की दूसरे धर्मो में जलाई जाती है. उन्होंने किसी धर्म पर नहीं बल्कि विकृत हो चुके समाज पर अंगुली उठाई है, यह सच है की दहेज़ प्रताड़ना संबधित मामले अधिकतर हिन्दू धर्म में ही होते है और यह हमें स्वीकार करना होगा. यदि यह पोस्ट मैं लिखता तो शीर्षक देता की " हिन्दू धर्म में लड़किया जलाई जाती है" उन्होंने मुस्लिम धर्म की अच्छाइयों का बखान किया है और यह अच्छाई वहा है.. ऐसा नहीं है की वहा पर ऐसी घटनाये नहीं होती, वहा पर भी है किन्तु कारण दहेज़ नहीं है. अभी पिछले दिनों भदोही में एक मुस्लिम विवाहिता जलकर मर गयी पर कारण दहेज़ नहीं था..... पारिवारिक विवाद था........
हा बलात्कार और हत्या जैसी घटनाये सब जगह है क्योंकि इसके लिए समाज दोषी है.
मैं मानता हू यह ए सार्थक पोस्ट है धार्मिक अभिव्यक्ति के साथ बिना किसी की बुराई किये और और ऐसी पोस्ट का स्वागत करना चाहिए. ... समाज के एक गंभीर मुद्दे पर पोस्ट लिखने के लिए बधाई.

हरीश सिंह ने कहा…

सलीम भाई ने एक गंभीर विषय की प्रस्तुति सुन्दर ढंग से की है, वास्तव में समाज में बढ़ रही कन्या भ्रूण हत्या के पीछे दहेज़ ही मूल कारण है. आज यदि बहुए जलाई जा रही है तो उसका कारण दहेज़ भी है. सलीम भाई ने एक सार्थक पोस्ट लिखी है. उन्होंने यह कहा की "
"मुस्लिम समाज में बहुएं जलाई नहीं जातीं। ‘बलात्कार और उसके बाद हत्या’ नहीं होती। लड़कियां अपने माता-पिता के सिर पर दहेज और ख़र्चीली शादी का पड़ा बोझ हटा देने के लिए आत्महत्या नहीं करती."
इस पोस्ट में उन्होंने यह नहीं कहा की दूसरे धर्मो में जलाई जाती है. उन्होंने किसी धर्म पर नहीं बल्कि विकृत हो चुके समाज पर अंगुली उठाई है, यह सच है की दहेज़ प्रताड़ना संबधित मामले अधिकतर हिन्दू धर्म में ही होते है और यह हमें स्वीकार करना होगा. यदि यह पोस्ट मैं लिखता तो शीर्षक देता की " हिन्दू धर्म में लड़किया जलाई जाती है" उन्होंने मुस्लिम धर्म की अच्छाइयों का बखान किया है और यह अच्छाई वहा है.. ऐसा नहीं है की वहा पर ऐसी घटनाये नहीं होती, वहा पर भी है किन्तु कारण दहेज़ नहीं है. अभी पिछले दिनों भदोही में एक मुस्लिम विवाहिता जलकर मर गयी पर कारण दहेज़ नहीं था..... पारिवारिक विवाद था........
हा बलात्कार और हत्या जैसी घटनाये सब जगह है क्योंकि इसके लिए समाज दोषी है.
मैं मानता हू यह ए सार्थक पोस्ट है धार्मिक अभिव्यक्ति के साथ बिना किसी की बुराई किये और और ऐसी पोस्ट का स्वागत करना चाहिए. ... समाज के एक गंभीर मुद्दे पर पोस्ट लिखने के लिए बधाई.

हरीश सिंह ने कहा…

प्यारी बिटिया के उज्जवल भविष्य और लम्बी उम्र की शुभकामना. खुदा करे उसके जीवन में सदैव मुस्कान बनी रहे.

गंगाधर ने कहा…

सत्य बोलना पाप है........... बिटिया को आशीर्वाद

Saleem Khan ने कहा…

shukriya harish bhai !

Shah Nawaz ने कहा…

Post ka Title aur post mein usse related baatcheet padh kar to lagta hai ki aap Khwabon ki dunia mein jee rahe hain... Yeh ho sakta hai ki muslim samaaj mein yeh apraadh kam ho... Lekin hai zaroor, aur jaisa Adarsh sthapit karna chahiye us hisaab se yeh kaafi matra mein hai... Abhi bahut mehnat ki zarurat hai...

virendra sharma ने कहा…

समाज को कुरेदती एक सार्थक पोस्ट .

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