रविवार, 6 मार्च 2011

प्रेम का जीवन में वास्तविक महत्व व प्रेम का स्वरूप...डा श्याम गुप्त....

     प्रेम की लौकिक अभिव्यक्ति का प्रभावोत्पादन कैसा सौन्दर्यमय, अभिव्यन्जनीय, अनिवर्चनीय व मादक होता है की प्रेम रस में सराबोर जीव ,प्रेमी कह उठता है---"नी मैं तो यार बनानाणी चाहे लोग बोलियाँ बोलें...."और आदर्श सामाजिक-दार्शनिक भाव में बुल्लेशाह गाते हैं ---
              " बेशक मंदिर-मस्जिद तोड़ो बुल्लेशाह कहदा,
                पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो इस दिल में दिलवर रहता ".....
और तार्किक भाव में --" जो तुम इतना ज्योतित मादक गहरा प्यार करो प्रिय मुझसे,
                                तो फिर मेरे प्यार को ही, तुम प्यार करो प्रिय ||"
तथा द्वैत भाव में रैदास नृत्य-रत गाते हैं ---"प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी ..." वहीं अद्वैत रूप-भाव ग्रहण करते हुए--" रांझा रांझा कहदे कहदे आपुहि रांझा होई "|
               व्यक्त रूप में नैनों ,सैनों, वाणी, कामोन्माद,शारीरिक व्यापार-विषयानुभूति से अभिव्यक्त यह काम रूपी प्रेम , अव्यक्त भाव-रूप में हृदयाकाश, मानव के अंतस में आनंदानुभूति बनकर स्पंदित होता है ---" प्रेम उदधि में डूबिये, डूबै सो उतराय..." |  यह सच्चे प्रेम का स्वरुप है, उदात्त रूप है | इस प्रेम के बारे में लिखना ईश्वर को ईश्वर के बारे में बताना ही है |
           यह प्रेम कहाँ से प्रस्फुटित होता है ! वैदिक ज्ञान  के अनुसार आदि-सृष्टि की ब्रह्म-इच्छा --"एकोहं बहुस्याम .." ही प्रेम का प्रथम प्रस्फुटन है जो सृष्टि का, जीवन-जगत का आधार है |  परमाणु स्थित उपकणों में जो सहज आवेश है वह प्रेम है , अणु  के परमाणुओं के मध्य जो बंधन है वह प्रेम है, प्रत्येक कण-कण के मध्य जो आकर्ष है, विभव है जिससे वे एक दूसरे को खींचते हैं वह प्रेम है, जीव मात्र के हृदयाकाश में जो  सार्व भौम अपनेपन का  सर्वश्रेष्ठ भाव गुम्फित है वह प्रेम है  | शिव-शक्ति, ब्रह्म-माया, सृष्टि-लय, काम-रति, संसार-लीला, व्यवहार व व्यापार , कार्य-कारण में  जो सहज सम्बन्ध है वही प्रेम  है | समस्त जीव-जगत का व्यापार प्रेम का ही प्रतिफलन है | यही प्रेम की सार्थकता व महत्ता है | अतः  प्रेम जीवन का वास्तविक ही नहीं अपितु सार्वकालीन, सार्वजनीन व सार्वभौम सत्य है |
           प्रेम की महिमा अनंत  है, प्रेम-सरिता का प्रवाह तात्विकता से उत्पन्न होकर, लोक से होकर दिव्य की अनुभूति तक जाता है | तभी  जायसी कह उठते हैं---" मानुष प्रेम भयो बैकुंठी,नाहत काह छार इक मूठी .." |
            प्रेम शाश्वत है, शाश्वतता प्रेम से ही है | सृष्टि के प्रादुर्भाव,स्थिति, लय व पुनर्सृजन की निरंतरता का आधार प्रेम ही है | सृष्टि प्रेम से है, प्रेम ही सृष्टि है | सृष्टि के कण-कण में जो स्पंदन, क्रंदन, नर्तन ,जीवन व निलयन  है, सभी कुछ प्रेम, प्रेम की अभिव्यक्ति व प्रेम की परिणति ही है |  संयोग प्रेम है, वियोग प्रेम है, स्थिति प्रेम है | जीवन की अभिव्यक्ति, कृति व सांसारिकता का भव-चक्र प्रेम से ही है |
            विश्व में जो कुछ भी घटता है वह प्रेम की ही अभिव्यक्ति है, और जो कुछ नहीं होता वह भी प्रेम की ही अभिव्यक्ति ( या अनभिव्यक्ति ) ही है | लौकिक संसार के आचार, व्यवहार,संचार व संगठन की जो मूल शक्ति 'एक्य' है , आपसी प्रेम की अभिव्यक्ति ही है | एकता विश्व की सबसे बड़ी शक्ति है और उस शक्ति का बीज-मूल प्रेम ही है |
           प्रेम यद्यपि एक ऐच्छिक वृत्ति  भी है, परन्तु प्रायः यह एक स्वतः उपलब्ध तत्व की भाँति सहज-योग की अवधारणा ही है | मानव-मानव का सामीप्य भाव प्रेम है|  प्रेम ही मानव को समाज के सौहार्द , एकता व संगठन के रूप में सामुदायिक भावना व जन-जन को समान धरती पर लाने में सक्षम है | विनम्रता, आदर, त्याग, परोपकार, सहिष्णुता, भाईचारा, क्षमा, श्रृद्धा, विश्वास आदि उदात्त भाव , जो समाज, राष्ट्र व देश और संस्कृति के स्थायित्व, गति व उत्थान के बीज रूप हैं , प्रेम के ही रूप हैं | तभी तो विश्व के प्राचीनतम व श्रेष्ठतम  साहित्य--'ऋग्वेद' में ऋषि ने एक ही सूत्र से सारे प्रेम की व्याख्या कर दी है--"मा विदिष्वावहै  -जीव मात्र से द्वेष न करें ; ताकि- "सर्वेन सुखिना सन्तु "--सब सुखी हों |  कबीर कहते भी हैं---ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय " |
             भाव-अभाव, व्यक्त-अव्यक्त, मूर्त-अमूर्त, सत्य-असत्य, सद-नासद में जो अंतर्द्वंद्व निहित है, जो पृथकता व संयुक्त द्वंद्व भाव है, वह प्रेम की ही अभिव्यक्ति है, और इससे जो ऊर्जा -भाव, रस आदि के रूप में निःसृत या आवृत्त होती है ,वही प्रेम है |
          सृष्टि, जीवन, जगत,सत्य, अहिंसा,दर्शन, धर्म , अध्यात्म, आत्मतत्व, अमृतत्व ,ईश्वर, ब्रह्म -सब प्रेम के ही रूप हैं | आदि-इच्छा (supreme-will ) परमात्मा का आदि-प्रेम भाव ही है जो चराचर की उत्पत्ति का कारण-मूल है | उस प्रेम को नमन ही प्रेम की पराकाष्ठा है, पराकाष्ठा स्वयं प्रेम है | वस्तुत: मानव मन में जब तक प्रेम प्रस्फुटित नहीं होता वह स्थूल पिंड मात्र ही है | जड़ शरीर में भरी चेतना में तब तक भाव तरंगें नहीं फूटतीं जब तक आत्मचेतना में प्रेम-स्फुरणा न उठे | यह प्रेम जहां भी स्थिर होजाता है उसी का स्वभाव व सत्ता का रूप तक ग्रहण कर लेता है , और यही सत्ता मानवीय जड़ता को गतित्व व देवत्व में परिवर्तित करती है |
           प्रेम में अनासक्ति भाव से लेना-देना, लौकिक प्रेम के लक्षण हैं, परन्तु प्रेमास्पद से कुछ चाहना 'आसक्ति' है | अनासक्त प्रेम की चरम अवस्था 'भक्ति' है | कण-कण को प्रेममय मानकर निष्काम व्यवहार अलौकिक 'परमात्म-भाव' है | यह भाव सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को बांधता है | इस अलौकिक तत्व ज्ञान को प्रेमी अंतःकरण ही समझ पाता है, तभी तो मीरा गाती  हैं ---
                                " माई री मैं तो प्रेम दिवाणी, मेरा दरद न जाणे कोय "
प्रेम तत्व को समझने वाला ही सच्चा भक्त है ," प्रेम के बस भगवान" , गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं --
                              " सर्व भूतस्थमात्मानं सर्व भूतानिचात्मनि  | 
                               ईक्षते योग-युक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शन:  || "
अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों में मुझ ( परमात्मा ) को देखने वाला व्यक्ति (भक्त) सबको एक समान प्रेम , की अवस्था को, समाधि सुख की भाँति अनुभव करता है |
                              " प्रेम कौ पंथ कराल महा, तरवारि की धार पै धावनो है | " ---यह दुधारी तलवार की तरह प्रेम-पथ अत्यंत दुष्कर मार्ग है ; परन्तु  आत्मिक व आध्यात्मिक विकास का मार्ग यही है | भौतिक बिकास का सूत्र भी यही प्रेम  है |  अवगुण-त्रय  --घृणा, क्रोध व लोभ पर नियंत्रण ही प्रेम-राह का प्रथम सोपान है , श्रृद्धा-विश्वास के साथ साथ उन्मुक्त युक्ति-युक्त चिंतन प्रेम का अगला सोपान है | तभी तुलसीदास जी कहते हैं --" "भवानी-शंकरौ वन्दे , श्रृद्धा-विश्वास रूपिणों " |
               निश्छलता,निस्वार्थता व अनासक्ति-भाव -प्रेम मार्ग के अंतिम सोपान हैं जो व्यष्टि, समष्टि व सृष्टि के सर्वांगीण विकास की चरम अवस्था है | यही स्वर्ग है, ईश्वर प्राप्ति है , कैवल्य है, मोक्ष है |
              इस प्रेम,  सर्व व्यापी 'प्रेम' को कुछ शब्दों, वाक्यों में बांधना धृष्टता ही है , इस धृष्टता के लिए मैं ईश्वर ,माँ वाणी, स्वयं प्रेम व प्रेमी जनों से क्षमा का आकांक्षी हूँ ---
                " इस संसार असार में, श्याम ' प्रेम ही  सार।
                   प्रेम करे दोनों मिलें,  ज्ञान और संसार॥
                       
                           ---डा श्याम गुप्त, सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२ ; मो ०९४१५१५६४६४

7 टिप्पणियाँ:

हरीश सिंह ने कहा…

अति सुन्दर रचना, इस पर बोलने के लिए हमारे पास शब्द ही नहीं है,

गंगाधर ने कहा…

प्रेम पर इतनी अच्छी प्रस्तुति. शायद अब कोई नहीं लिख पायेगा. हमें लगता है की हरीश जी को पता था की आप प्रतियोगिता में रहे तो यह एकतरफा हो जाएगी. इसीलिए आपको निर्णायक मंडल में रख दिया. किन्तु आप और अनवर जी बीच जो प्रतियोगिता है वह तो रहेगी, अब देखना यह है की अनवर भाई भी लिखते हैं या हर मानकर बैठ जाते हैं. शब्दों का ऐसा बंधन पहली बार देख रहा हूँ.

saurabh dubey ने कहा…

अतिसुंदर रचना

रजनीश तिवारी ने कहा…

प्रेम को परिभाषित करती बहुत ही अच्छी रचना ...

rubi sinha ने कहा…

प्रेम पर इतना भी लिखा जा सकता है. आश्चर्यचकित हु.

rubi sinha ने कहा…

अब मैं नहीं लिखूंगी.

shyam gupta ने कहा…

----रूबी जी..अवश्य लिखें...अपितु निश्चय ही लिखें...हर व्यक्ति की अपनी अपनी अभिव्यक्ति होती है...दूसरे प्रेम कर चुके तो क्या आप प्रेम करना बंद करदेंगी....इस अनंत शब्द-भाव-विषय --प्रेम-- पर अनंत काल से अनंत लोगों ने लिखा है व अनंत काल तक लिखते रहेंगे..कौन संपूर्णता से लिख पाया है ?

"पोथी पढ-पढ(लिख-लिख)जग मुआ,पंडित भया न कोय।
एकै आखर प्रेम का पढै( लिखै )सो पन्डित होय ॥’

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