रविवार, 5 फ़रवरी 2012

सखा ....प्रेम काव्य...अष्टम सुमनान्जलि--..सहोदर व सख्य-प्रेम...गीत-5 ....डा श्याम गुप्त..





       प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- अष्टम सुमनान्जलि--सहोदर व सख्य-प्रेम ...इस खंड में ...अनुज, अग्रज,  भाई-बहन,  मेरा भैया,  सखा ,  दोस्त-दुश्मन एवं दाम्पत्य ...आदि सात  रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी 
---प्रस्तुत है ... पंचम रचना ...सखा ....
मितवा ! तुमसे मिल जियरा हरषाए ।। 


साँचा मन का सखा वही है ,
सुख -दुःख में जो धीर बंधाये ।
मन का मीत वही बन पाए,
जियरा से जियरा जुड़ जाए ।
भीड़ पड़े विपदा की भारी,
सूखे संबंधों की क्यारी  ।
 रिश्ते-नाते काम  न आयें ,
मीत सदा ही साथ निभाये ।
मितवा तुम से मिल जियरा हरषाए ।।

पांडव घिरे कष्ट में भारी,
द्रुपुद सुता बन आर्त पुकारी ।
मीत बने जो कृष्ण मुरारी,
लाज बचाने दौड़े आये ।

अर्जुन  के बन आपु सारथी,
ऐसी अनुपम प्रीती-रीति थी ।
सब विधि उनके काम बनाए,
गीता के प्रिय बचन सुनाये ।

मितवा ! तुम से मिल जियरा हरषाए ।।

कृष्ण-सुदामा सखा प्रेम को,
कौन जगत में जो नहिं जाने ।
तीन लोक श्रीनाथ बिहारी ,
दो दो लोक सखा बलिहारी ।

राम सखा केवट की प्रीती,
अमर राम-सुग्रीव प्रतीती ।
राज्य नारि पद भुवन दिलाये,
सारे बिगड़े काम बनाए ।
मितवा ! तुमसे मिल जियरा हरषाए ।।

ऊधो, कृष्ण सखा सुखकारी ,
ज्ञान अहं मन में अति भारी ।
सख्य-प्रेम ब्रजपुरी पठाए,
सारा ज्ञान अहं मिट जाए ।

एक घूँट लोटे का पानी,
पगड़ी बदल मित्र बन जाए ।
घूँट घूँट का क़र्ज़ सखा ही ,
देकर अपने प्राण चुकाए ।

मितवा! तुम से मिल जियरा हरषाए ।।
मीत वही जो मन को धीर बंधाये ।
सुख में दुःख में काम सखा के आये ।
मितवा ! तुमसे मिल जियरा हरषाए ।।



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