शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

प्रेम काव्य...अष्टम सुमनान्जलि--..सहोदर व सख्य-प्रेम...गीत-४....डा श्याम गुप्त..




       प्रेम  -- किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता, किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जा सकता; वह एक विहंगम भाव है  | प्रस्तुत है-- अष्टम सुमनान्जलि--सहोदर व सख्य-प्रेम ...इस खंड में ...अनुज, अग्रज,  भाई-बहन,  मेरा भैया,  सखा ,  दोस्त-दुश्मन एवं दाम्पत्य ...आदि सात  रचनाएँ प्रस्तुत की जायेंगी 
---प्रस्तुत है ..चतुर्थ रचना ...मेरा भैया .....
 

चान्दनी  मुस्कुराये, चाँद भी खिलखिलाए,
सुधि बचपन की मन में, लहर लहर जाए । 
 
वो  भैया के माथे पर, रोली का टीका,
नेग लड़-लड़ के लेना कराना मुंह मीठा ।
 
वो  राखी के डोरे, जो बने प्रीति बंधन, 
वो झूलों की पींगें, वो कुट्टी वो अनबन ।
 
 रुलाया किसी ने भी, मुझे यूंही कभी जब,
पीट देना और अच्छा सबक सा सिखाना ।

कैसे छुआ भी  तूने, बहन है ये मेरी,
प्रीति के पल वो कैसे भुला कोई पाए ।
 
चांदनी मुस्कुराए, चाँद भी खिलखिलाए,
सुधि बचपन की मन में लहर लहर जाए ।।
 
खेल ही खेल में  छेड़ करके सभी को ही , 
मुस्कुरा मुस्कुरा फिर, रुलाना सभी को।
 
रूठना और मनाना, वो फिर-फिर रिझाना ,
मीठी  यादों को ऐसी, भुला  कौन पाए ।  
 
उसकी मासूम भोली सी मुस्कान पर तो, 
मरती-मिटतीं थी सारी ही सखियाँ मेरी ।

करके शैतानियाँ, झगड़े नादानियां , और-
तोड़ना सब दिलों का, वो चलन याद आये । 
 
चांदनी मुस्कुराए, चाँद भी खिलखिलाए,
सुधि बचपन की मन में महक महक जाए ।।
 

1 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

बहोत अच्छे ।

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