सोमवार, 12 दिसंबर 2011

माननीय सम्पादक महोदय,


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

माननीय सम्पादक महोदय,
       आज सवेरे प्रभात खबर का सम्पादकीय पढ़ा,और तब से कुछ प्रश्नों से जूझ रहा हूँ,आपने लिखा "......यह एक तथ्य है कि भीड़ की ताकत संख्या होती है,विवेक नहीं. संसद के विवेक में देश के हर हिस्से से आये हुए जन-प्रतिनिधियों का (सामूहिक)विवेक शामिल होता है.जंतर-मंतर या किसी दूसरी जगह पर जुटी भीड़ का इस्तेमाल सांसदों के सामूहिक विवेक पर दबाव बनाने के लिए तो किया जा सकता है,फैसला लेने या फैसला सुनाने के लिए नहीं  "         
माननीय महोदय,ऐसा लगता है कि ऐसी बातें कतिपय माननीयों का अहम् कायम करने के लिए की जाती हैं.हमारी समझ से तो जनता अपने प्रशासनिक कार्यों की पूर्ति के लिए इन प्रतिनिधियों को संसद या विधान सभाओं में भेजती है,कारण कि इन जगहों पर चूँकि हजारों-लाखों की संख्या में लोग समा नहीं सकते,दूसरा ऐसा करने से एक दूसरी ही अव्यवस्था पैदा हो सकती है इसलिए ऐसा मान कर कि हम जिन्हें इन संवैधानिक जगहों पर भेज रहें हैं,वहां जाकर ये अपने कर्तव्यों का अनुपालन करते हुए हमें समुचित व्यवस्था,सुरक्षा और सु-शासन प्रदान करेंगे,ऐसा विवेक हमारे भीतर होता है मगर जिस सामूहिक विवेक की बात आप कर रहे हो,वह बहुत सारे जन-प्रतिनिधियों के किसी भी प्रकार के आचरण और चरित्र में कभी दिखाई नहीं पड़ता,तात्पर्य यह कि चुने जाने के पश्चात ये अपने लालच के कारण महज अपने स्वार्थों को पूरा करने के अलावा हमसे किये गए वायदों और उन सारी बातों या कर्तव्यों से मुकर गए और ऐसा भी जान पड़ता है कि वो आगे भी ऐसा ही करते रहने वालें हैं और जब जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्ट होने की बात की जाती है,तो इशारा साफ़-साफ़ इन्हीं लोगों की और होता है....स्पष्टतया तो अपने आचरण और चरित्र से वे इन जगहों को कलंकित कर रहे होते हैं,जहां होकर देश का मान और जनता "दाम" बढ़ाना चाहिए !!
       किन्तु माननीय सम्पादक हम देखते है कि आप और आप जैसे कतिपय सम्पादक अपने आलेखों में चीख-चीख इन आचरणों और चरित्र पर आवाज़ उठाते हो मगर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती...आप सबों की पहल पर ये जेल जाते हैं,वहां भी ये गुलछर्रे ही उड़ाते हैं और कुछ दिनों बाद जमानत पर छूट जाते हैं,तो जब देश के या लोकतंत्र चौथे खम्बे के नाम से संवैधानिक दर्जे से सुशोभित इस मंच की आवाज़ का यह हाल है,तो आप सब ज़रा सोचिये कि आम जनता किन हालातों में जीती है और मजा यह कि कल तक अपने बीच में रह रहे किसी आम से सज्जन को अपना सेवक बनने के लिए भेजा जाकर भी अपने को छला हुआ पाती है तो उसके दिल पर क्या गुजरती होगी ?! यह बिलकुल वैसा ही है कि आपने तो तमाम गुण-रूप और आचरण देखकर शादी की मगर शादी होते ही आपका जीवन साथी किसी और के संग रंगरेलियां मनाने लगा...!!    
      और माननीय सम्पादक साहब, तमाम ऐसे प्रतिनिधियों के मानवता को शर्मसार कर देने वाले गंदले चरित्र से या अपने आचरण से दुनिया भर में भारत का मान/भाल नीचा कर देने वाले समस्त-"सु_कर्मों" के बावजूद भी आज तक अपनी संसद या कोई भी विधानसभा कलंकित नहीं हुई नहीं मगर उनके इस चरित्र पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाते ही ये संस्थाएं यकायक कलंकित हो जाया करती है...!! तो क्या जनता इतनी बेगैरत है कि उसके द्वारा किसी वाजिब सवाल को समुचित-सुसंगत तर्कों के साथ उठाये जाने के बावजूद आप उसे लांछित कर दो...??क्या यह भी किन्हीं ताकतवर लोगों का अहम् नहीं है,जो किन्हीं दुसरे ताकतवर लोगों के पक्ष में जा ठहरता है...?? 
         और माननीय सम्पादक साहब,जनता अपनी किस सीमा तक रहे यह तय करने से पहले यह तो तय कर लो कि हमारे भ्रष्ट जन-प्रतिनिधियों और 
उनकी चांडाल-चौकड़ी अपनी किस सीमा तक रहे....मगर इससे पूर्व एक बुनियादी बात यह कि हमने उन्हें वहां चांडाल-चौकड़ी का निर्माण करने हेतु नहीं बल्कि हमारे खुद के लिए सुशासन करने हेतु भेजा है....!!और वो हमारे ही भ्रष्ट राजा बन बैठे हैं....!!यह तो वही बात हुई कि मेरी बिल्ली और मुझी से म्याऊँ...!!....जनता भी विवेकशील ही होती है...अगर ऐसा नहीं है तो विवेकहीनता का तात्पर्य क्या यह भी तो नहीं है कि उसने अपने लिए गलत प्रतिनिधि चुन लिए हैं...??अगर ऐसा है तब तो उन्हें गद्दी से उतारना बनता है....बनता है ना...!!
        मतलब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनने तक की सीमा तक तो सही या विवेकशील है...उसके बाद उसका यह गुण समाप्त हो जाता है,यही ना...??मतलब यह भी कि एक चुन लिए जाने के बाद जिसे जो चाहे करता रहे और जनता भाड़ में जाए जनता की बला से...!!इसका मतलब यह भी तो है कि जनता के बीच से उठकर जनता के लिए आवाज़ उठाने वाले सारे संविधान-विज्ञ और अन्य सम्मानित लोग चूँकि किसी रूप में संवैधानिक नहीं हैं,इसलिए उन्हें संविधान और संसद का अपमान करने का दोषी ठहराया जा सकता है,और उनपर तमाम गलत-सलत सलत लांछन लगाकर जनता को बरगलाया जाना बिलकुल संवैधानिक है...वाजिब है ??
     तो फिर सम्पादक साहब हम जनता यह आज से सबको यह बताना चाहते हैं कि इस देश के जन्मजात नागरिक होने के कारण सबसे पहले हम संवैधानिक हैं....उसके बाद कोई और...और संविधान में सचमुच अगर हमारे लिए कोई जगह है तो कोई भी संविधान के नाम पर अब ज्यादा दिनों तक हमें भरमाये रख "कुशासन" नहीं लाद सकता....हम भी संविधान के रक्षक हैं....और उसका भक्षण करने वालों को हटाने की कारवाई शुरू कर चुके हैं....जय हिंद....!!
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http://baatpuraanihai.blogspot.com/
     आज सवेरे प्रभात खबर का सम्पादकीय पढ़ा,और तब से कुछ प्रश्नों से जूझ रहा हूँ,आपने लिखा "......यह एक तथ्य है कि भीड़ की ताकत संख्या होती है,विवेक नहीं. संसद के विवेक में देश के हर हिस्से से आये हुए जन-प्रतिनिधियों का (सामूहिक)विवेक शामिल होता है.जंतर-मंतर या किसी दूसरी जगह पर जुटी भीड़ का इस्तेमाल सांसदों के सामूहिक विवेक पर दबाव बनाने के लिए तो किया जा सकता है,फैसला लेने या फैसला सुनाने के लिए नहीं  "         
माननीय महोदय,ऐसा लगता है कि ऐसी बातें कतिपय माननीयों का अहम् कायम करने के लिए की जाती हैं.हमारी समझ से तो जनता अपने प्रशासनिक कार्यों की पूर्ति के लिए इन प्रतिनिधियों को संसद या विधान सभाओं में भेजती है,कारण कि इन जगहों पर चूँकि हजारों-लाखों की संख्या में लोग समा नहीं सकते,दूसरा ऐसा करने से एक दूसरी ही अव्यवस्था पैदा हो सकती है इसलिए ऐसा मान कर कि हम जिन्हें इन संवैधानिक जगहों पर भेज रहें हैं,वहां जाकर ये अपने कर्तव्यों का अनुपालन करते हुए हमें समुचित व्यवस्था,सुरक्षा और सु-शासन प्रदान करेंगे,ऐसा विवेक हमारे भीतर होता है मगर जिस सामूहिक विवेक की बात आप कर रहे हो,वह बहुत सारे जन-प्रतिनिधियों के किसी भी प्रकार के आचरण और चरित्र में कभी दिखाई नहीं पड़ता,तात्पर्य यह कि चुने जाने के पश्चात ये अपने लालच के कारण महज अपने स्वार्थों को पूरा करने के अलावा हमसे किये गए वायदों और उन सारी बातों या कर्तव्यों से मुकर गए और ऐसा भी जान पड़ता है कि वो आगे भी ऐसा ही करते रहने वालें हैं और जब जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्ट होने की बात की जाती है,तो इशारा साफ़-साफ़ इन्हीं लोगों की और होता है....स्पष्टतया तो अपने आचरण और चरित्र से वे इन जगहों को कलंकित कर रहे होते हैं,जहां होकर देश का मान और जनता "दाम" बढ़ाना चाहिए !!
       किन्तु माननीय सम्पादक हम देखते है कि आप और आप जैसे कतिपय सम्पादक अपने आलेखों में चीख-चीख इन आचरणों और चरित्र पर आवाज़ उठाते हो मगर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती...आप सबों की पहल पर ये जेल जाते हैं,वहां भी ये गुलछर्रे ही उड़ाते हैं और कुछ दिनों बाद जमानत पर छूट जाते हैं,तो जब देश के या लोकतंत्र चौथे खम्बे के नाम से संवैधानिक दर्जे से सुशोभित इस मंच की आवाज़ का यह हाल है,तो आप सब ज़रा सोचिये कि आम जनता किन हालातों में जीती है और मजा यह कि कल तक अपने बीच में रह रहे किसी आम से सज्जन को अपना सेवक बनने के लिए भेजा जाकर भी अपने को छला हुआ पाती है तो उसके दिल पर क्या गुजरती होगी ?! यह बिलकुल वैसा ही है कि आपने तो तमाम गुण-रूप और आचरण देखकर शादी की मगर शादी होते ही आपका जीवन साथी किसी और के संग रंगरेलियां मनाने लगा...!!    
      और माननीय सम्पादक साहब, तमाम ऐसे प्रतिनिधियों के मानवता को शर्मसार कर देने वाले गंदले चरित्र से या अपने आचरण से दुनिया भर में भारत का मान/भाल नीचा कर देने वाले समस्त-"सु_कर्मों" के बावजूद भी आज तक अपनी संसद या कोई भी विधानसभा कलंकित नहीं हुई नहीं मगर उनके इस चरित्र पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाते ही ये संस्थाएं यकायक कलंकित हो जाया करती है...!! तो क्या जनता इतनी बेगैरत है कि उसके द्वारा किसी वाजिब सवाल को समुचित-सुसंगत तर्कों के साथ उठाये जाने के बावजूद आप उसे लांछित कर दो...??क्या यह भी किन्हीं ताकतवर लोगों का अहम् नहीं है,जो किन्हीं दुसरे ताकतवर लोगों के पक्ष में जा ठहरता है...?? 
         और माननीय सम्पादक साहब,जनता अपनी किस सीमा तक रहे यह तय करने से पहले यह तो तय कर लो कि हमारे भ्रष्ट जन-प्रतिनिधियों और 
उनकी चांडाल-चौकड़ी अपनी किस सीमा तक रहे....मगर इससे पूर्व एक बुनियादी बात यह कि हमने उन्हें वहां चांडाल-चौकड़ी का निर्माण करने हेतु नहीं बल्कि हमारे खुद के लिए सुशासन करने हेतु भेजा है....!!और वो हमारे ही भ्रष्ट राजा बन बैठे हैं....!!यह तो वही बात हुई कि मेरी बिल्ली और मुझी से म्याऊँ...!!....जनता भी विवेकशील ही होती है...अगर ऐसा नहीं है तो विवेकहीनता का तात्पर्य क्या यह भी तो नहीं है कि उसने अपने लिए गलत प्रतिनिधि चुन लिए हैं...??अगर ऐसा है तब तो उन्हें गद्दी से उतारना बनता है....बनता है ना...!!
        मतलब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनने तक की सीमा तक तो सही या विवेकशील है...उसके बाद उसका यह गुण समाप्त हो जाता है,यही ना...??मतलब यह भी कि एक चुन लिए जाने के बाद जिसे जो चाहे करता रहे और जनता भाड़ में जाए जनता की बला से...!!इसका मतलब यह भी तो है कि जनता के बीच से उठकर जनता के लिए आवाज़ उठाने वाले सारे संविधान-विज्ञ और अन्य सम्मानित लोग चूँकि किसी रूप में संवैधानिक नहीं हैं,इसलिए उन्हें संविधान और संसद का अपमान करने का दोषी ठहराया जा सकता है,और उनपर तमाम गलत-सलत सलत लांछन लगाकर जनता को बरगलाया जाना बिलकुल संवैधानिक है...वाजिब है ??
     तो फिर सम्पादक साहब हम जनता यह आज से सबको यह बताना चाहते हैं कि इस देश के जन्मजात नागरिक होने के कारण सबसे पहले हम संवैधानिक हैं....उसके बाद कोई और...और संविधान में सचमुच अगर हमारे लिए कोई जगह है तो कोई भी संविधान के नाम पर अब ज्यादा दिनों तक हमें भरमाये रख "कुशासन" नहीं लाद सकता....हम भी संविधान के रक्षक हैं....और उसका भक्षण करने वालों को हटाने की कारवाई शुरू कर चुके हैं....जय हिंद....!!
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1 टिप्पणियाँ:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

राजनीति में जो लोग हैं वे भी इसी समाज से आते हैं. It is a reflection of bigger social malady.

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