सपने जब टूटने ही हैं
क्यों ना
दिन रात मन पसंद
सपने ही देखूं
स्वछन्द आकाश में
उड़ता फिरूं
समुद्र की गहराईओं में
गोता लगाऊँ
पहाड़ों पर बादलों से
अठखेलियाँ करूँ
जंगल की हरयाली को
शेर चीतों के साथ देखूं
ब्रम्हांड के
हर ग्रह को देखूं
जो बिछड़ गए रोज़
उनसे मिलूँ
जिन्हें चाहता उनसे
दूर ना हूँ
निरंतर हँसू सबको
हँसाता रहूँ
क्यों ना
दिन रात मन पसंद
सपने ही देखूं
स्वछन्द आकाश में
उड़ता फिरूं
समुद्र की गहराईओं में
गोता लगाऊँ
पहाड़ों पर बादलों से
अठखेलियाँ करूँ
जंगल की हरयाली को
शेर चीतों के साथ देखूं
ब्रम्हांड के
हर ग्रह को देखूं
जो बिछड़ गए रोज़
उनसे मिलूँ
जिन्हें चाहता उनसे
दूर ना हूँ
निरंतर हँसू सबको
हँसाता रहूँ
08-09-2011
1463-35-09-11
1463-35-09-11
1 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर स्वप्न्मई रचना /बधाई आपको /पर सपने टूटते नहीं जरुर पूरे होतें हैं अगर उन्हें पूरे मन से देखे जाएँ /
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