गुरुवार, 8 सितंबर 2011

सपने जब टूटने ही हैं

सपने जब टूटने ही हैं
क्यों ना
दिन रात मन पसंद
सपने ही देखूं
स्वछन्द आकाश में
उड़ता फिरूं
समुद्र की गहराईओं में
गोता लगाऊँ
पहाड़ों पर बादलों से
अठखेलियाँ करूँ
जंगल की हरयाली को
शेर चीतों के साथ देखूं
ब्रम्हांड के
हर ग्रह को देखूं
जो बिछड़ गए रोज़
उनसे मिलूँ
जिन्हें चाहता उनसे
दूर ना हूँ
निरंतर हँसू सबको
हँसाता रहूँ
08-09-2011
1463-35-09-11

1 टिप्पणियाँ:

prerna argal ने कहा…

बहुत सुंदर स्वप्न्मई रचना /बधाई आपको /पर सपने टूटते नहीं जरुर पूरे होतें हैं अगर उन्हें पूरे मन से देखे जाएँ /




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