बुधवार, 24 अगस्त 2011

सिर्फ एक सूराख है मेरी आँखों के ऐन सामने



सिर्फ एक सूराख है मेरी आँखों के ऐन सामने
और मुझे जो चेहरा दिखाई दे रहा है,वो एकदम से 
बदहवास-आक्रान्त और अनन्त दुखों से भरपूर है 
इस वक्त वो अपने परिवार के साथ एक चौकी पर बैठा है 
सबके-सब माथे-गाल या घुटनों पर हाथ धरे हुए हैं और 
चौकी के ऐन नीचे बह रहा घुटनों भर पानी और 
जिसमें बह रहें हैं बर्तन-भांडे और अन्य क्या-क्या कुछ 
इन सबके साथ बहा रहा जा रहा उसका सामर्थ्य 
उसकी आशा-उसका आत्मविश्वास और उसकी अस्मिता 
फिर भी पता नहीं कि किस अदम्य जिजीविषा के सहारे 
वो सब ताकते रहते हैं निर्विकल्प आसमान की और 
कि शायद उनके उधर ताकने से शायद रुक जाएगा पानी 
बीवी-बच्चे-परिवार और खुद अपनी भूख भीतर से मारती है 
और बाहर से मारा करती है प्रकृति और अन्य बलशाली लोग 
 सिर्फ एक सूराख है मेरी आँखों के ऐन सामने....
जिसमें से मुझे सिर्फ वही एक आदमी दिखाई दे रहा है 
जिसका एक बच्चा इस घनघोर बरसा में चल बसा है भूख से 
पिता खांसता तड़प रहा है और माँ भी गोया चल चुकने को आतुर 
बीवी को भी हालांकि तकलीफ तो बहुत है मगर कुछ कह नहीं पाती 
कि अर्द्धागिनी होने के नाते आदमी के हिस्से के आधे दुखों की हकदार 
दूसरा बच्चा भी भूख-भूख का विलाप कर रहा है मगर शहर बंद है 
और इस तरह बंद है कोई काम करके कुछ भी पाने का कोई रास्ता 
इस तरह इस परिवार में ना जाने कौन-कौन मर जाने को है.....
सिर्फ एक सूराख है मेरी आँखों के ऐन सामने....
मगर मुझे तो यह भी नहीं पता कि मैं इसके भीतर झाँक रहा हूँ 
या यह मेरे भीतर मुझमें से होकर....कि मैं नहीं कर पाता कुछ भी 
किसी सिर्फ एक आदमी की भी दुःख तकलीफ को दूर........
और ऐसे-ऐसे सुराख मेरी आँखों के ऐन सामने 
एक नहीं...हज़ारों-लाखों करोड़ों और अरबों हैं....!!

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