ज़ख्म खाता रहा
मलहम लगाता रहा
खुद को समझाता
रहा
किसी को फर्क नहीं
पडा
सब खुद की सोचते रहे
चोट पहुंचाते रहे
निरंतर
भीड़ का हिस्सा
बने रहे
अपनी फितरत में
जीते रहे
चेहरे पर चेहरे
लगा कर घूमते रहे
दिन पर दिन
ज़ख्म गहरे होते गए
हम हँस कर खाते रहे
11-07-2011
1166-50-07-11
1 टिप्पणियाँ:
बिल्कुल सही.
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