मंगलवार, 14 जून 2011

प्रेमकाव्य-महाकाव्य. .पंचम सुमनान्जलि (क्रमश:)..चतुर्थ रचना ....डा श्याम गुप्त

                                  प्रेम किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक   विहंगम  भाव है | प्रस्तुत है- पंचम -सुमनान्जलि..समष्टि-प्रेम....जिसमें देश व राष्ट्र -प्रेम , विश्व-वन्धुत्व  व मानव-प्रेम निहित ...७ गीत व कवितायें ...... देव दानव मानव,  मानव धर्म,  विश्व बंधुत्व ,  गीत लिखो देश के,  बंदेमातरम ,  उठा तिरंगा हाथों  में  व  ऐ कलम अब छेड़ दो.... प्रस्तुत की जायेंगीं |  प्रस्तुत है ....चतुर्थ   कविता .....
 
गीत लिखो देश के .....
 
लेखनी  तुम लिख चुकी श्रृंगार के,
बहुत सारे गीत अब कुछ ध्यान दो |
और  भी है कुछ सृजन  के लिए अब ,
नीति  पर चल, देश को भी मान दो ||

 
देख  करके  दुर्दशा   संसार की,
रक्त का संचार क्या होता नहीं ?
खौल उठतीं क्यों नहीं हैं धमनियां ,
शब्द  शर-संधान क्यों होता नहीं ||

 
गीत  तुम लिखती रहीं श्रृंगार के,
चूड़ियों की खनक के, सिंगार के   |
प्यार के, मनमीत के, मनुहार के ,
पायलों के गीत की, झंकार के ||

 
रेडियो  टीवी  कलावीथी  सभी,
नृत्य-गायन, देह-दर्शन मंच पर |
व्यस्त हैं, अभ्यस्त हैं सब मस्त हैं ,
भद्र जन जो, इस सभी से त्रस्त हैं ||
 
आज जग में क्या कमी श्रृंगार की ,
हर तरफ  श्रृंगार की ही आरती |
तुम अगर  श्रृंगार रत ही जो रही,
रो  उठेगी  शारदा , माँ भारती ||
 
चीर अपना हरण नारी कर रही,
स्वयं ही दुशासनों को वर रही |
हो रहा है खेल  नारी  देह का ,
और नारी चुप सहन सब कर रही ||
 
नाम पर नव-प्रगति के कामी पुरुष ,
और धन-लोलुप पुरुष-नारी सभी |
नाम देते हैं कला का, भोग को,
कह रहे सम्मान वे अपमान को ||

 
भांग सी घोली हुई है हवा में,
मस्त हैं सब स्वप्न के संसार में |
सभ्यता, राष्ट्रीयता, शुचि नीतियाँ ,
रोरहीं, इस असत के व्यापार में |
 
 
खौलकर कुछ कह रहीं हों धमनियां,
शौर्य का संचार कुछ होता कहीं |
नींद हट, चैतन्य पलकें यदि हुईं ,
तो उठो, इस दुर्दशा पर ध्यान दो ||
 
 
गीत गाओ, नीतियों के, देश के,
नारियों की लाज के सम्मान के |
तोड़ दो कारा रुपहले जाल की ,
गीत गाओ राष्ट्र-हित सम्मान के ||
 
 
हर गली , हर नगर में,  हर देश में ,
कृष्ण बन,हर व्यक्ति उठकर खडा हो  
मान मर्यादा ढँकी कुछ रह सके,
लाज की साड़ी लिए कर, खडा हो || 

 
है बहुत कुछ नव-सृजन के लिए अब ,
रक्त भी है धमनियों में खौलता |
शौर्य का संचार  भी है  हो चला,
देश के चिर-शौर्य की गाथा लिखो ||

 
कौन  पूछेगा   उसे   संसार  में  ?
वक्त की आवाज़ जो सुनता नहीं |
लिख न पाया जो प्रगति की भूमिका,
वह अमिट इतिहास बन पाता नहीं |









 

3 टिप्पणियाँ:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

बहुत ही सही बाते कहीं गयी... सार्थक और सीख देती कविता... उम्दा

गंगाधर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति आभार

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद नूतन जी ...व गंगाधर जी....
---यद्यपि देश भक्ति के लिए कोइ समय तय नहीं, जीवन का प्रत्येक क्षण ही देश के लिए होना चाहिए...हाँ आज जैसे संक्रांति काल में कवी, लेखक , साहित्यकार के भी देश के प्रति दायित्व बढ़ जाते हैं ..

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