लड़की के जन्म पर
उदास क्यों हो जाते हैं
परिवारीजन ?
क्यों उड़ जाती है
रौनक चेहरों की
और क्यों हो जाती है
नए मेहमान के आने की ख़ुशी कम ?
शायद सबसे पहले मन
में आता है ये
हमसे जुदा होकर
चली जाएगी पराए घर ,
फिर एकाएक घेर लेती
है दहेज़ की फ़िक्र ;
याद आने लगती हैं
बहन बुआ ,पड़ोस की
पूनम-छवि के साथ घटी
अमानवीय घटनाएँ !
ससुराल के नाम पर
दिखने लगती है
काले पानी की सजा ;
फिर शायद ह्रदय में यह
भय भी आता है कि
हमारी बिटिया को भी
सहने होंगे समाज के
कठोर ताने -''सावधान
तुम एक लड़की हो ''
किशोरी बनते ही तुम एक देह
मात्र रह जाओगी ,
पास से गुजरता पुरुष
तुम पर कस सकता है तंज
''यू आर सेक्सी ''
इतने पर भी तुम गौर न करो तो
एक तरफ़ा प्यार के नाम पर
तुम्हे हासिल करना चाहेगा ,
और हासिल न कर सका तो
पराजय की आग में स्वयं
जलते हुए तुम पर तेजाब
फेंकने से भी नहीं हिचकिचाएगा ;
इतने भय तुम्हारे जन्म के साथ
ही जुड़ जाते हैं इसीलिए
शायद लड़की के जन्म पर
परिवारीजन
उदास हो जाते हैं .
शिखा कौशिक
5 टिप्पणियाँ:
chintan sheel kavita.vastav me yahi sach hai.
नवाज देवबंदी की एक रचना याद आ रही है।
वो रुला कर हंस ना पाया देर तक
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक।
नाहलक बेटे तो दर्दे सिर बने,
बेटियों ने सिर दबाया देर तक।
(नाहलक माने नालायक)
सच्चाई को प्रकट करती रचना, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं और लडकियाँ किसी बात में कम नहीं रह गयी हैं !
वास्तव में हालात बदल रहे हैं, बेतिया बेटे से काम नहीं, पर सोच बदलने में देर है. अच्छी रचना
जिसे हम सभ्य समाज कहते हैं...यहाँ भी नारी उपेक्षित महसूस करे...तो कहीं व्यवस्थागत दोष है...सोच का फर्क भी लगता है...हमसे अच्छे तो आदिवासी होंगे जो अपने कानून के अनुसार नारी को सम्मान तो देते हैं...
एक टिप्पणी भेजें