------ प्रेम के विभिन्न भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत चतुर्थ -सुमनांजलि- प्रकृति - में प्रकृति में उपस्थित प्रेम के विविध उपादानों के बारे में, नौ विभिन्न अतुकान्त गीतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो हैं--भ्रमर गीत, दीपक-राग, चन्दा-चकोर, मयूर-नृत्य , कुमुदिनी, सरिता-संगीत, चातक-विरहा, वीणा-सारंग व शुक-सारिका... । प्रस्तुत है अष्टम गीत----वीणा-सारंग .....
सारंग !
तुम संगीत में आत्म लय हो जाते हो ।
वीणा-नाद के स्वर रूपी-
जान से जाते हो ।
क्यों ?
जाल में फंसा घायल मृग ,
तड़फड़ाया ;
टूटती हुई साँसों से,
यही कह पाया ।
श्रीमान !
यह तो है प्रेम की ही माया ,
नाद प्रेम तो है जन जन में समाया ।
नाद जीवन है, नाद जगत है ,
नाद है प्रभु की छाया ।
जो आनंद नाद जी लेता है,
नाद रूपी प्रेम रस पी लेता है ,
वह तो एक क्षण में ही -
सारा जीवन जी लेता है ||
नाद आनंद है,
प्रेमानंद है, परमानंद है,
ब्रह्मानंद है |
कल कल निनाद है,
अंतर्नाद है |
सारा जगत ही जीवन का नाद है ;
नाद ब्रह्म का संवाद है |
फिर क्या जीना ,
क्या मरना ;
व्यर्थ का विवाद है ||
3 टिप्पणियाँ:
sundar bhavpoorn prastuti.aabhar.
sundar bhavpoorn prastuti.aabhar.
धन्यवाद , रूबी जी, निर्मल आनंद...
धन्यवाद...गन्गाधर व शालिनी जी....
एक टिप्पणी भेजें