सिनेमा हाल में कदम रखते ही गौर करे !! लोग मिलेंगे जो अपने दोस्तों के साथ आये हुए है .ऑफिस में काम करने वाले सहयोगी मिलेगे . किशोर बच्चे मिलेंगे जो अपने ढेर सारे दोस्तों के साथ आये हुए है . यूवा लड़कियों का झुण्ड मिलेगा . प्रेमी जोड़े मिलेंगे . नहीं मिलेगा तो सिर्फ परिवार .........है ना आश्चर्य की बात ? एक समय था जब सिनेमा हाल सिर्फ परिवारों से भरे होते थे . यह द्रश्य अस्सी नब्बे के दशक में आम हुआ करता था . लेकिन जिस रफ़्तार से एकल परिवारों की संख्या बदने लगी है और सामजिक ढांचा बदलने लगा है , लोगों की सोंच और जीवन शेली में जबरदस्त परिवर्तन आया है .
अब जरा परदे पर गौर करे ...फिल्मो के कथानक से परिवार नामक संस्था लुप्त होने लगी है . हर तीसरी -चोथी फिल्म के कथानक में माँ - बाबूजी , पापा , बहन का किरदार नहीं होता है . परिवार होता भी है तो बिखरा सा , अधुरा सा होता है .
देश में सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर शोपिंग काम्प्लेक्स में बदलते जा रहे है , मल्टीप्लेक्स बड़ते जारहे है . टिकिट दर आसमान पर जा रही . जितने में तीन लोग बालकनी में बेठा करते थे उतना पैसा पार्किंग वाला ले लेता है ...बावजूद इसके अँधेरे में चुनचुनाती रौशनी का जादू बरकरार है .
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पश्चिम का अन्धानुकरण एवं मैकाले इफेक्ट
समसामयिक रचना
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