सोमवार, 23 मई 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य---सप्तम गीत..चातक बिरहा...(-सुमनान्जलि-४.--प्रकृति -क्रमिक..).-- डा श्याम गुप्त ....





हे चातक !

तुम क्यों बिरहा गाते हो ?
धरती के जल से-
प्यास नहीं बुझाते हो |
हे, उच्चकुल प्रतिमान !
स्वाति- बूँद के हेतु,
प्यासे रह जाते हो ,
सब दुःख सह जाते हो ||

पपीहे ने आसमान में चक्कर लगाया,   
टेर लगाकर बिरहा गाया |
प्रेम, परीक्षा लेता है,
प्रेम परीक्षा देता है ;
सच्चा प्रेम तो-
किसी एक से ही होता है |
प्रेमी तो,
त्याग ताप साधना से ही 
अमर-प्रेम जीता है |
तभी तो चातक,
स्वाति -बूँद रूपी -
सच्चा प्रेम-रस ही पीता है ||

सच्चा प्रेमी तो,
बिरहा गाते हुए भी-
सारा जीवन जी लेता है |
चातक,
सौभाग्यशाली है कि-
स्वाति-बूँद का ,
रूप-रस तो पी लेता है ||






1 टिप्पणियाँ:

आशुतोष की कलम ने कहा…

सच्चा प्रेमी तो,
बिरहा गाते हुए भी-
सारा जीवन जी लेता है |
चातक,
सौभाग्यशाली है कि-
स्वाति-बूँद का ,
रूप-रस तो पी लेता है ||

सच्चे प्रेम का अद्भुत वर्णन ..

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