भाई नवीन चंद्र चतुर्वेदी जी ने हमें जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी जी की शायरी पढ़वाई और हमने उनकी शायरी को ‘मुशायरे‘ में पेश भी किया। इसी सिलसिले में उनकी तरफ़ से एक ईमेल मिली जिसमें कुछ अच्छे शेर लिखे हुए थे। जिस ईमेल में काम की बातें होती हैं, उन्हें मैं डिलीट नहीं करता। सो इसे भी डिलीट नहीं किया और उनके भेजे अशआर को मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं।
अनवर भाई, तीन शेर , आप से मित्रवत शेयर कर रहा हूँ:-
ये माना, ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
:- रघुपति सहाय फिराक़
न सताइश (प्रशंसा) की तमन्ना, न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी (अर्थ) न सही
:- मिर्ज़ा ग़ालिब
एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े
:- सुरेश चंद्र शौक़
7 टिप्पणियाँ:
जिन्हें प्रसंशा की ख्वाहिश नहीं होती...वो ही कुछ कर गुजरते हैं...
bahut sundar prastuti.
bhut hi acchi abhivakti...
छिद्रान्वेषण....
--पहला शेर तो एक सचाई है...सुपर्व..
--दूसरा..जरूरी नहीं कि गालिब ने कहा है तो सत्यबचन हो...
"न सताइश (प्रशंसा)की तमन्ना, न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी (अर्थ) न सही"
.... पहली पन्क्ति तो एकदम सटीक...परंतु दूसरी.गलत है....अशआर में मानी नहीं तो उसका लिखना/कहना बेमानी..
--और तीसरा.. एक स्टेटमेन्ट है...
bhut hi acchi abhivakti...
nice post......
Aabhar aap sabhi ka.
Shukriya.
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