ये कविता मैंने अपने कालेज के दिनों में लगभग १० वर्ष पहले एक सत्य घटना को देख कर लिखी थी..
जाडे की सुनसान रात,हड्डियाँ गलाने वाली ठंढ
बर्फ सी वो सिहरन,
रात के सन्नाटे को चीरती हुए ट्रकों की आवाजे……..
इन सबके बीच मैने देखा एक छोटी सी लड़की.
अधफटे कपडे.चिथडो मे लिपटी…
कांपती ठिठुरती,अपने आप मे सिमटती,
वो छोटी से लड़की,सिसकती सिहरती|
फिर मैने देखा अपनी तरफ,
गरम कपडे ऊनी चद्दर,
सिर मे टोपी,पाव मे जूते.
सिर्फ एक कप काफी के लिए|
मैने सोचा ये अंतर क्यों है?
पूरी रात यही सोचता रहा|
सुबह मैने कुछ भीड़ इक्कठा देखी,
कुछ लोग इकठ्ठा थे किसी को घेरे हुए.
मैं भी गया देखकर आंखे फटी रह गई..
यही थी वो लड़की ठीठुरती सिहरती…
मगर अब नहीं थी, वो सिहरन,न ही थी वो ठिठुरन,
क्योंकि वह दूर जा चुकी थी,बहुत दूर दुनिया से परे|
पास पडे थे कुछ अधजले टायर के टुकडे|
लोगो ने फेक रखे थे कुछ सिक्के उसे जलाने के लिये..
मैने भी एक सिक्का उछाला उसकी लाश पे,
और कहा……
इससे ला दो कुछ कपडे.इसकी छोटी बहन के लिये..
कल ऐसा न हो हमे इकठ्ठा करने पडे कुछ सिक्के,
उसके भी कफ़न के लिये……………..
9 टिप्पणियाँ:
आशुतोष जी बहुत ही मार्मिक और सार्थक रचना दिल को हिला देने वाली न जाने कब हमारी सरकार या हमारे लोग होश में आयेंगे हम अपने को विकसित और विकासशील कहते हैं ?? काश लोग सुधरें -निम्न बहुत सुन्दर कहा आप ने
मैने भी एक सिक्का उछाला उसकी लाश पे,
और कहा……
इससे ला दो कुछ कपडे.इसकी छोटी बहन के लिये..
कल ऐसा न हो हमे इकठ्ठा करने पडे कुछ सिक्के,
उसके भी कफ़न के लिये
शुक्ल भ्रमर ५
aashutosh ji ye to aaj ke bade shahron kee vastvikta hai jahan bhavshoonya logon ka nivas ho gaya hai.marmik varnan....
bhut hi sarthak aur dil ko hilane dene vali rachna hai.. hamre aas-pas ke such jo hamsa hi hota hai use apne shabdo me piro diya hai aur kisi ko sochne pe majbur kar diya hai...
बहुत मार्मिक
kahne ko raha kya !
"मैने सोचा ये अंतर क्यों है?"----क्या ये अन्तर कभी मिट पाया या मिटपायेगा.???मार्मिक कविता लिखना टिप्पणी करदेना आसान है...पर....
--- एक यक्ष-प्रश्न---ए मिलियन डालर क्वेश्चन...????
....अन्तर तो सदा बना ही रहेगा..सबकी अपनी अपनी किस्मत-कर्म-भाग्यफ़ल...
--हं अन्तर कम होसकता है...मार्मिक स्थिति कम होसकती है यदि उस समय आप में( अभिप्राय: हम सभी लोगों में) इतनी हिम्मत होती( हो ) कि उसे अपने यहां लेजाते..खिलाते-पिलाते-ओढने को देते...????????
सुरेन्द्र जी.शालिनी जी,सुषमा जी,संगीता जी,रश्मि जी बहुत बहुत आभार..
डाक्टर श्याम गुप्ता जी: सहमत हूँ सिर्फ कविता लिखने से कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती है..मगर न्यक्ति विशेष की सीमाएं होती हैं..वैसे भी ये १० साल पूर्व के भाव थे ..अब मैंने कुछ छोटे छोटे प्रयास शुरू किये हैं..समय आने पर आप का सहयोग वांछित होगा
आशुतोष जी बहुत ही मार्मिक रचना
धन्यवाद आशुतोष....टिप्पणी का अर्थ है कि हमें कविता में सामाधान भी प्रस्तुत करना चाहिये तभी कविता पूर्ण होती है.....
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