मेरी जिन्दगी बादल के इक टुकडे की तरह,
कभी यहाँ कभी वहाँ |
न कोई घर,न कोई ठिकाना,
न कोई अपना,न कोई बेगाना!
कभी गरजने की चाह ,कभी बरसने का विश्वास,
कभी सूरज से कभी समंदर से,सबसे से है अपना रिश्ता निभाना|
इक पल लगता है,समस्त आसमान पर है…
अपना विस्तृत साम्राज्य,दूसरे पल बूंद बन कर बरस पड़ता हूँ,
फिर मुझको लगता है, अपना अस्तित्व भी बेगाना!
मैने देखा है सूरज की उन किरनों को भी ,
जिसके तेज से है,मनुष्य अब तक अनजाना!
फिर बूंद बन कर गुजरा हूँ,उन गलियों से उन पगडंडीयों से
जहा होता है बचपन सयाना !
मैं गुजरा हूँ उन आंधियो से भी,
जिसके आगे बडे बडे वृक्षों को पड़ता है,
झुक जाना……
और उस पहाड़ पर भी बनाता हूँ ठिकाना,
जो तोड़ता है इन आंधियो के अंहकार को,
जहाँ इन आंधियो को पड़ता है रुक जाना|
इन सब के बाद मेरे नियति मे लिखा है,
कुछ और भी,
मेरे बूंद रूपी अस्तित्व को सागर मे होता है,
मिल जाना…
फिर भी यह सोचता हूँ कि,
ठहरी हुई जिंदगी के लिये क्या पछताना!
अभी मुझे और आगे है जाना…
समंदर के बाद आसमान है अगला ठिकाना …..
समंदर के बाद आसमान है अगला ठिकाना …..
4 टिप्पणियाँ:
और उस पहाड़ पर भी बनाता हूँ ठिकाना,
जो तोड़ता है इन आंधियो के अंहकार को,
जहाँ इन आंधियो को पड़ता है रुक जाना|
इन सब के बाद मेरे नियति मे लिखा है,
कुछ और भी,
मेरे बूंद रूपी अस्तित्व को सागर मे होता है,
bahut sundar prastuti.
bhut hi sunder abhiyakti...
बहुत बढिया.. क्या बात है
समंदर से आसमान तक का सफ़र...बादल को सब पता है...कोई इसका कुछ नहीं बिगड़ सकता...आत्मा की तरह...सुन्दर अभिव्यक्ति...
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