मंगलवार, 3 मई 2011

छंद (मनमोहन-सोनिया वाद)

घोटालों के हंगामों के बाद मनमोहन बोले,
मैडम जी, ये मेरे माथे कैसी मजबूरी है
चाहे कहीं कुछ हो, चाहे कोई घोटाला करे,
दोषियों में नाम मेरे आना जरूरी है
मेरे गले का पट्टा तो आपके है हाथ में,
फिर विपक्षी पार्टियों की ये कैसी मगरूरी है
आपको तो कोई कुछ कहता नही है, बस
मेरे माथे पर ही सारा कलंक लगाना जरूरी है

बोली सोनिया जी, शांत हो जाओ मुन्ना मेरे,
मजा तो तभी आता है राजनीति के खेल में
सिंह-सिंह आपस में ही बस लड़ते रहे,
और लोमड़ी-सियार रहे एक दूजे के मेल में
आपको तो लोग बस गलियां ही देते रहे,
तारीफ तो हो मेरी, शहर-गाँव, बस-रेल में
दोषी तो मजे लूटते रहे निज बंगलों में,
और निर्दोषियों को कूटती रहे पुलिस जेल में. 

3 टिप्पणियाँ:

Vivek Jain ने कहा…

सत्यता बयान करती रचना

विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर कविता है। वधाई

नेहा भाटिया ने कहा…

बहुत सुंदर कविता है। वधाई

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