इस वसुधा में सन्नाटा है..
वो व्योम नजर नहीं आता है.
मेरे दुख के झंकृत तरंग को,
ये काल छिनने आया है...
शायद पथ के हमराही ने,
अब मुक्तिगीत को गाया है.
क्या अंतसमय अब आया है.....
तरु पर बैठा खेचर निढाल.
रवि का मस्तक हो गया लाल,
इस संध्या रागिनी बेला में,
ये कोलाहल क्यों समाया है...
आक्रांत रवि की किरणों से
क्या तुमने सिंदूर लगाया है??
इस दृग की सीमाओं ने जो,
अंतिम विश्वास लगाया था..
सर्वस्व समर्पण करने का,
जो राग प्रीत का गया था..
भुज पाश से निज मुक्ति दे कर,
सब कुछ का अर्घ्य चढ़ाया है......
क्या अंतसमय अब आया है...
पाताल में या स्वर्ग से,
इस जलधि के उत्सर्ग से...
उन्माद था जो बह गया..
स्तब्ध नीरव पत्थरों का,
मर्म बाकी रह गया...
इन पत्थरो का मर्म अब,
भगवान बन कर आया है.... (भगवान = शिवलिंग)
क्या अंतसमय अब आया है......
नोट: इस कविता में शिवलिंग शब्द का चयन सिर्फ भावनात्मक रूप से है.. उसका हिन्दू धर्म की पूजा पद्धति से कोई लेना देना नहीं है..अतः इसे धर्म से जोड़कर न देखें ..
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
मुक्तिगीत
4/22/2011 08:41:00 pm
आशुतोष की कलम
3 comments
3 टिप्पणियाँ:
गीत व भाव सुन्दर हैं ---हां कुछ तथ्यात्मक, मात्रात्मक, व विषय भाव की त्रुटियां हैं...
jamkar likhiye.
सुन्दर
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