गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

पुस्तक समीक्षा : अमेरिकी प्रवासी भारतीय:हिदी प्रतिभाएं---- डा श्याम गुप्त


                     पुस्तक- समीक्षा
 

ameriki-hindi (Mobile)
पुस्तक- -अमेरिकी प्रवासी भारतीय : हिन्दी प्रतिभाएं
(प्रथम व द्वितीय भाग )लेखिका -डा ऊषा गुप्ता ,

  प्रकाशक -न्यू रायल बुक कंपनी , लालबाग , लखनऊ.; 
समीक्षक --डा श्याम गुप्त.......


        " जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ",

            यही सच है ;और यह सच पूरी तरह उभर कर आया है
डा ऊषा गुप्ता,भू. पू. प्रोफ. हिन्दी विभाग लखनऊ वि. विद्यालय द्वारा
दो भागोमें रचित समीक्ष्य पुस्तक 'अमेरिकी प्रवासी भारतीय:
हिदी प्रतिभाएं 'में।  पुस्तक में लेखिक ने अपने देश से दूर बसे
विभिन्न धर्म,व्यवसायव क्षेत्र के व्यक्तियों केभावोद्गारों को
उनकी कृतियों , काव्य रचनाओं , कहानियों द्वारा बड़े
सुन्दरढंग से प्रस्तुत किया है। जहां विभिन्न
रचनाओं में देश की माटी की सुगंधित यादें है ,
बिछुड़ने का दर्द है , वहीं संमृद्धि   में मानवता के डूबने
का कष्ट एवं अपने देशभारत की दुर्दशा की पीड़ा भी है।
देखिये---   ----                   

"वह बात आई , 
न बल्ख़ में न बुखारे में  , 
जो छज्जू के चौबारे में।"
---परिचय -प्र.१७. 
                                                        *         *            * 
यहाँ आदमी बहुत थोड़े हैं , 
फिर भी न जाने क्यों , 
इक दूजे से मुंह मोड़े हैं।------कैलाश नाथ तिवारी 

                                                        *      *           * 
कैसी थी माधुर्य प्रीति , 
पल पल के उस जीवन में , 
भूल गया हूँ आज, 
मशीनी चट्टानों के वन में।
----कैलाश नाथ तिवारी . 
                                                     *             *                          * 
   " दूर छूट गया बचपन का वह युग जहां सचमुच डाल डाल पर सोने की 
चिडियाँ बसेरा करती थीं ; अब वह भारत कहाँ रहा। विज्ञान ने , समय की
दौड़ ने भारत को विदेशों की स्पर्धा में लाकर खडा कर दिया है ? "  ---- निर्मला अरोरा . 
                                                             *            *                   * 
वैभवों को भोगते वे ही यहाँ / जो यहाँ सन्मार्ग पर न चले कभी ।----- शकुन्तला माथुर . 
और भी--- 

"अमरीका में हमको आये, अपने ऊपर हांसी। 
भारत में हम साहब थे, अमरीका में चपरासी। 
अमरीका है ऐसा लड्डू , जो भी इसको खाए , 
खाए सो पछताए और न खाए सो पछताए। "  
---- देवेन्द्र नारायण शुक्ल . 
                       *          *                 * 
और तू कितना सोयेगा हिंद,
हो गई आधी रात अब तो जाग।  -----देवेन्द्र नारायण शुक्ल .                         
                    परिचय  में यद्यपि लेखिका ने अमेरिका की प्राकृतिक सुषमा,
भौतुक सौन्दर्य, वैज्ञानिक प्रगति, समृद्धि व एश्वर्य का सांगोपांग वर्णन किया है
जो वास्तव में व्यक्ति को दूर दूर से खींच लाती है ;परन्तु साथ में ही ...
." नंदन कानन के सौन्दर्य .....", " कैसर बाग़ के इमली के पेड़ ...
.", कभी ऐसा ही था मेरा लखनऊ ...."  की याद तथा यहाँ अमेरिका में
"..बड़े अपनत्व से हाय हेलो! कहकर आपका मन जीत लेंगे , बस इतना ही ,
आगे फुल स्टाप। "  एवं   " भारत में जीवन की कठिनाइयों पर जोरों 
शोरों से विवाद , आध्यात्मिक चर्चा , गली मुहल्लों की गप-शप, -
 वयस्कों व वृद्धों के समय काटने के अच्छे साधन हैं। पर अमेरिका में क्या करें ?......" 
  कहकर समृद्धि व ऐश्वर्य की चमक धमक के पीछे जीवन के भयावह खोखलेपन
के सत्य को भी उजागर किया है। कवि अंतर्मन निष्पक्ष होता है।

                पशु -पक्षी के तरह सुबह सुबह निकल जाना,और देर शाम को अपने अपने
कोटरों में लौट आना ही जीवन है तो सारे ऐश्वर्य का क्या ?  ऐसे में अपने देश की
 सुगंध बरबस याद आती ही है।यही भाव इस पुस्तक की आत्मा है। सबका मिलकर
त्यौहार मनाना, होली, दिवाली ,ईद व क्रिसमस भी ; यही आत्मीयता ..
" वसुधैव कुटुम्बकम " भारत है,  जो कहीं नहीं है। सचमुच- सुदूर में भारत को
जीवित रखना एक पुनीत कर्म है;  हाँ यह स्पष्ट नहीं होता कि अमेरिकी भी
 उसी जोश से होली दिवाली ईद मनाते हैं या नहीं ?

                    अभिव्यक्ति, काव्य प्रतिभा, या प्रतिभा किसी देश, काल, जाति,
धर्म , व्यवसाय , उम्र व भाषा के मोहताज़ नहीं होती। यह सिद्ध किया है प्रस्तुत
पुस्तक में लेखिका डा ऊषा गुप्ता ने ; जिसमें अमेरिका स्थित प्रवासी भारतीयों
के काव्य प्रतिभा, उनके भारत व अमेरिका के बारे में विचार के साथ साथ वहां
हिन्दी के प्रचार प्रसार व भारतीय संस्कृति को जीवित रखने के प्रयासों को भी
भारतीयों व विश्व के सम्मुख रखने का प्रयत्न किया है| यह एक महत्वपूर्ण बात है।
प्रवासी भारतीयों के हिन्दी प्रेम, कृतित्व, काव्यानुभूति के विषद वर्णन के लिए
वे विशेषतः बधाई के पात्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक भारतीय व विश्व काव्यजगत में ,
विश्व साहित्य क़ी एक धारा के भांति प्रवाहित होकर अपना स्थान बनायेगी
एवं प्रेरणा स्रोत होगी , ऐसा मेरा मानना है।

                  एक महत्व पूर्ण बात और है कि लगभग सभी कवियों ने छायावादी
गीतों से लेकर अगीत विधा तक समान रूप से लिखा है। सभी गीत , अगीत,
गद्य - पद्य सभी विधाओं में समान रूप से रचना रत हैं। विधाओं का कोई
टकराव नहीं है । यह  "अतीत से जुड़ाव व प्रगति से लगाव " ही प्रगति का लक्षण है।
 समस्त कवि, कहानीकार, लेखक एवं प्रस्तुत कृति की लेखिका डा ऊषा गुप्ता जी
बधाई की पात्र हैं।

2 टिप्पणियाँ:

Anita ने कहा…

पुस्तक लेखिका व समीक्षाकार दोनों बधाई के पात्र हैं, अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के ह्रदय के उदगारों को पढ़कर बहुत अच्छा लगा, अपने देश की बात ही कुछ और है !

आशुतोष की कलम ने कहा…

बोलो भईया दे दे तान हिंदी हिन्दू हिन्दुस्थान
सुन्दर समीक्षा

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