प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा -- रचयिता---डा श्याम गुप्त
------ प्रेम के विभिन्न भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत चतुर्थ -सुमनांजलि- प्रकृति - में प्रकृति में उपस्थित प्रेम के विविध उपादानों के बारे में, नौ विभिन्न अतुकान्त गीतों द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो हैं--भ्रमर गीत, दीपक-राग, चन्दा-चकोर, मयूर-न्रित्य, कुमुदिनी, सरिता-संगीत, चातक-विरहा, वीणा-सारंग व शुक-सारिका... । प्रस्तुत है प्रथम गीत---भ्रमर-गीत.....भ्रमर !
तुम कली कली का रस चूसते हो,
क्यों ?
मकरंद लोलुप बन,
बगिया की गली गली घूमते हो,
क्यों ?
दुनिया तुम्हें, निर्मोही-
प्रीति की रीति न निबाह्ने वाला ,
कली कली मधु चखने वाला, समझती है;
न जाने क्या क्या उलाहने देती है,
क्यों ?
क्यों न दे !
तुम से अच्छी तो मधुमक्खी है,
रस पीकर,
मकरंद से मधु तो बनाती है;
लेने के प्रतिदान में
प्रीति की रीति तो निभाती है॥
तितलियां,
रंग-बिरंगी छवि से
जन जन का मन,
हर्षित तो करती हैं।
मन में प्रेम, उल्लास व-
प्रेम-आकांक्षा तो भरती हैं॥
भ्रमर !
तुम कृष्ण वर्ण हो,
प्रेम के प्रतीक, कृष्ण के वर्ण ;
फिर भी- रसास्वादन का ,
प्रतिदान नहीं देते ,
क्यों ?
कलियो !
तुम क्यों मकरंद बनाती हो ?
अपनी सुरभि से ,
भ्रमर जैसे निर्मोही को लुभाती हो;
अपनी प्रेम सुरभि को ,
व्यर्थ लुटाती हो ?
कलियाँ हँसीं,
मुस्कुराईं ;
अपना सौरभ बिखेरकर ,
खिलाखिलायीं |
प्रेम का अर्थ होता है-
देना ही देना ,
देते ही जाना |
निर्विकार भाव से,
बिना प्रतिदान मांगे,
बिना प्रतिदान पाए -
जो देता ही जाए ,
वही सच्चा प्रेमी कहाए ||
मांगे बिना भी -
भ्रमर सबकुछ देता है |
कलियों के सौरभ-कण रूपी -
प्रेम-पाती को ,
बांटता है, प्रेमी पुष्पों में ;
वाहक बनकर-
सौरभ-कणों का |
पुष्पित होता है तभी तो,
बन बहार,
हर बार ,
सुमनांजलि बनकर ,
प्रेम संसार ,
नव-सृजन श्रृंगार ,
सृष्टि का आधार || ----क्रमश: अगला गीत..दीपक राग....
7 टिप्पणियाँ:
निःस्वार्थ भाव से देते जाना ही प्रेम होता है..\
बहुत खुबसूरत प्रस्तुति ...
खुबसूरत प्रस्तुति ...
बहुत खुबसूरत प्रस्तुति ...
प्रेम ही जीवन है. काश मैं आपसे कुछ सीख पाती. बहुत सुन्दर आभार.
धन्यवाद सभी को....
धन्यवाद पूनम जी--
"रिचो अक्षरे परमेव्योम्नास्यिन्देवा अधि विश्वे निषेदु..."
---रिग्वेद १.१६४
अविनाशी रिचायें ( ग्यान ) परमव्योम में ( संसार में ) बसी हुईं हैं..मौज़ूद हैं...जो इस तथ्य को पहचान कर( उनका अध्यायन करके) उनका उचित उपयोग करना चाहिये....
प्रेम का अर्थ होता है-
देना ही देना ,
देते ही जाना |
निर्विकार भाव से,
बिना प्रतिदान मांगे,
बिना प्रतिदान पाए -
जो देता ही जाए ,
वही सच्चा प्रेमी कहाए
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। साधुवाद।
--धन्यवाद देवेन्द्र जी.. वैसे.देना-लेना, खाना-खिलाना, गूढ बातें कहना-सुनना--- उभयपक्षीय प्रेम के ये ३X२ = ६ लक्षण हैं...
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