वो चाहते
मैं रुक जाऊं
निरंतर
चलना बंद कर दूं
नया सोचना
नया करना छोड़ दूं
अपने में
सिमट कर रह जाऊं
सीमाओं में बंध जाऊं
दुनिया के
रेले में मिल जाऊं
मैं ठहरा बहता पानी
कैसे उनके जाल में
फँस जाऊं ?
मुझे बहना है
समुद्र में मिलना है
बादल बन
आकाश को छूना है
निरंतर नया करना है
कैसे सीमाओं में
बंध जाऊं ?
23-04-2011
746-166-04-11
6 टिप्पणियाँ:
samundar tak ki yatra karani zaruri hai...bandh kar rahna nahin hai chahe koi kitani bhi koshishein kare...na chalna chhodiye, na sochna aur na bahana...utaam rachna...
सुन्दर भाव...
विश्व में वह कौन सीमाहीन है
हो न जिसका खोज सीमा में मिला
निरंतर को कौन बांध सकता है सीमाओं में..
सुन्दर रचना..आप मुक्त व्योम में ऐसे ही विचरण करें ..
आभार
आशुतोष की कलम से....: मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :
मैं ठहरा बहता पानी
कैसे उनके जाल में
फँस जाऊं ?
मुझे बहना है
समुद्र में मिलना है
बादल बन
आकाश को छूना है
निरंतर नया करना है
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ । साधुवाद।
हम उन्मुक्त गगन के वासी पिंजर बद्ध न रह पाएंगे, यह कविता याद आ गयी आपकी कविता पढ़कर !
Maan Gaye Dr Tela.
Heart touching
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